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Sunday 25 March 2012

गूंगी-बहरी सरकार के खिलाफ अन्ना का आंदोलन

सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने रविवार को कहा कि वह 'गूंगी और बहरी' सरकार के खिलाफ बड़ा विरोध प्रदर्शन आयोजित करेंगे जो भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वालों को निशाना बनाए जाने पर आंखे मूंदे हुए हैं।

भ्रष्टाचार का भंड़ाफोड़ करने वालों के संरक्षण के लिए कठोर कानून बनाने और दिवंगत आईपीएस अधिकारी नरेन्द्र कुमार के लिए न्याय की मांग के वास्ते एक दिन के उपवास शुरू करने से पहले अन्ना ने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करते हुए काफी लोगों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।

उन्होंने आरोप लगाया कि इनमें से कई मामलों के तीन वर्ष गुजर जाने के बावजूद सरकार ने जांच नहीं कराई।

अन्ना ने कहा कि उनकी भ्रष्टाचार का भंड़ाफोड़ करने वालों माता, बच्चें, पिता, पत्नी न्याय के लिए कराह रहे हैं लेकिन सरकार गूंगी और बहरी हो गई है। उसे लोगों की कराह सुनाई नहीं दे रही है। इसके लिए बड़ा आंदोलन होगा। तब सरकार ध्यान देगी।

सरकार ने मनरेगा योजना शुरू की लेकिन ये लोग (भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वाले) इसे बेहतर बनाने की कोशिश में मारे गए।
अन्ना हजारे के उपवास का आयोजन करने वाले टीम अन्ना ने जन लोकपाल विधेयक को अमलीजामा नहीं पहनाने के लिए सत्तारूढ कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया।

टीम अन्ना के अनुसार, 2010 के बाद से भ्रष्टाचार की बुराई को उजागर करने की कोशिश में कम से कम 15 लोग अपना बलिदान दे चुके हैं। इसको ध्यान में रखते हुए भ्रष्टाचार का भंड़ाफोड़ करने वालों की सुरक्षा के लिए मजबूत व्यवस्था बनाए जाने की जरूरत है। (भाषा)

रोज एक व्यक्ति का अपहरण करते हैं माओवादी

ओडिशा में दो इतालवी पर्यटकों और फिर बीजद के एक आदिवासी विधायक का अपहरण माओवादियों की रणनीति के लिहाज से कोई नई बात नहीं है। 2008 और उसके बाद के चार साल में माओवादियों ने 1500 से अधिक लोगों का अपहरण किया और इनमें से 328 को मौत के घाट उतार दिया।

सुरक्षाबलों से जुड़े एक अधिकारी ने कहा ‍कि नक्सलियों की रणनीति पर नजर डालें तो जहां एक ओर पुलिस के कथित मुखबिरों को मौत के घाट उतारना उनकी फितरत में है, वहीं अपहरण के जरिए प्रशासन पर दबाव बनाना उनका पसंदीदा हथियार है।

आंकड़ों का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि 2008 और उसके बाद के चार साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि माओवादियों ने 1500 से अधिक लोगों का अपहरण किया, जिनमें कई स्थानीय नेता और पुलिस प्रशासन के अधिकारी शामिल थे।

अधिकारी ने कहा कि अधिकांश मामलों में नक्सली छोटी बडी शर्तें मनवाने के बाद अपहृत व्यक्ति को छोड़ देते हैं लेकिन कई मामलों में वे पूरी बर्बरता से अपहृत की हत्या कर यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि यदि उनकी मांगें नहीं मानी गईं तो वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।

केन्द्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि 2008 में माओवादियों द्वारा अपहरण की 108 वारदात हुई। इनमें 280 लोगों का अपहरण किया गया और 47 लोगों को बड़ी बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिया गया। सबसे अधिक 145 लोगों का अपहरण छत्तीसगढ़ में हुआ जबकि 96 के आंकड़े के साथ झारखंड दूसरे नंबर पर है।

मंत्रालय के मुताबिक 2009 में नक्सलियों ने 437 लोगों का अपहरण किया और मांगें नहीं माने जाने की स्थिति में 100 लोगों की हत्या कर दी। उस समय सबसे अधिक 146 लोगों का अपहरण झारखंड में हुआ जबकि 121 लोगों को छत्तीसगढ़ में अगवा किया गया।

दिलचस्प बात यह है कि अपहृत लोगों की हत्या के मामले में पश्चिम बंगाल शीर्ष सर्वाधिक बदनाम रहा, जहां 65 लोगों का अपहरण किया गया और उनमें से 34 को नक्सलियों ने मौत के घाट उतार दिया।

मंत्रालय ने बताया कि 2010 में नक्सलियों द्वारा अपहरण की 242 वारदात हुई। कुल 517 लोगों का अपहरण किया गया और इनमें से 118 को माओवादियों ने मौत के घाट उतार दिया।

सबसे अधिक 162 लोगों का अपहरण छत्तीसगढ़ में, 121 लोगों का झारखंड में, 74 का पश्चिम बंगाल में और 55 लोगों का ओडिशा में अपहरण किया गया। इस बार भी सबसे अधिक 59 लोगों को नक्सलियों ने पश्चिम बंगाल में मौत के घाट उतारा।

अधिकारी के मुताबिक यदि मध्य नवंबर 2011 तक के आकलन पर नजर डालें तो पाएंगे कि नक्सलियों ने 320 लोगों का अपहरण किया और इनमें से 63 को मौत के घाट उतार दिया। सबसे अधिक 100 अपहरण झारखंड में हुए।

नाटकीय रूप से बिहार में 78 लोगों का अपहरण हुआ, छत्तीसगढ़ के आंकड़ों में काफी कमी दर्ज की गई और 61 लोगों का अपहरण माओवादियों ने किया जबकि ओडिशा में 43 और पश्चिम बंगाल में 21 लोगों का अपहरण नक्सलियों ने किया। (भाषा)

Wednesday 14 March 2012

बिलासपुर SP राहुल शर्मा का सुसाइड

बॉस से परेशान थे बिलासपुर SP

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में खुद को गोली मारकर आत्महत्या करने वाले आईपीएस अधिकारी राहुल शर्मा का सुसाइड नोट बरामद हुआ है। पहले यह बताया जा रहा था कि एसपी राहुल शर्मा ने पारिवारिक समस्याओं से परेशान थे लेकिन बरामद हुए सुसाइड नोट ने इस कहानी को पलट कर रख दिया है। नोट से यह तो साफ हो गया है कि एसपी के ऊपर किसी उच्चाधिकारी का दबाव था। एसपी राहुल शर्मा ने खुदकुशी से पहले अंग्रेजी में नोट लिख छोड़ा जिसमें उन्होंने लिखा मैं अलग प्रवृत्ति का इंसान हूं और दबाव बर्दाश्त नहीं। बिलासपुर के एसपी राहुल शर्मा ने खुदकुशी से पहले अंग्रेजी में जो नोट लिख छोड़ा उसे उनकी पत्नी साधना की मौजूदगी में उनके कमरे से बरामद किया गया।
सुसाइड नोट के बारे में मीडिया को बताते हुए इलाके के पुलिस महानिरीक्षक जीपी सिंह ने कहा कि इस मामले में पूरी जांच की जाएगी। उनसे यह पूछा गया कि राहुल अपने किस सीनियर से परेशान थे तो उन्होंने कहा उनको कोई जानकारी नहीं है। बता दें कि एक तेज़ तर्रार आईपीएस अधिकारी के अचानक आत्महत्या की ख़बर ने समूचे राज्य को हिलाकर रख दिया। इस मुद्दे पर गुस्साई कांग्रेस ने विधानसभा की कार्यवाही नहीं चलने दी। नेता प्रतिपक्ष रवीन्द्र चौबे ने मांग की कि इस मामले की सीबीआई से जांच कराई जाए।
बता दें कि भड़ास4पुलिस ने अपने पाठकों को सबसे पहले यह जानकारी दी थी कि आईपीएस राहुल शर्मा के ऊपर किसी उच्चाधिकारी का दबाव था। राहुल ने अपने सुसाइड नोट में अपने सीनियर अफसर पर प्रताड़ित करने का आरोप लगाया और अपने परिजनों से क्षमा मांगी। पत्र में राहुल ने मातापिता को संबोधित कर लिखा है आप मुझे माफ नहीं करेंगे। पत्नी को लिखा कि बेटे स्वामी और छोटू का ध्यान रखना उनको अच्छी परवरिश देना। भाई रोहित के लिए लिखा कि मां पिता का ध्यान रखे। पत्र में राहुल ने लिखा कि मैं इंटरफेरिंग बॉस से परेशान हूं, इस वजह से मेरी शांति भंग हो रही है। मंगलवार को उनके कमरे की तलाशी ली गयी। तलाशी का काम पुलिस राहुल शर्मा के परिजनों की मौजूदगी में हुआ।
2002 बैच के आईपीएस अधिकारी राहुल बिलासपुर से पहले रायगढ़ में बतौर एसपी तैनात थे। राज्यपाल के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी के रुप में काम कर चुके राहुल शर्मा का इसी साल 6 जनवरी को राहुल शर्मा का तबादला बिलासपुर के लिए हुआ था।
एक दबंग पुलिस अफसर की खुदकुशी से सभी राजनीतिक दल और पूरा पुलिस महकमा सन्न है। मंगलवार को उनका अंतिम संस्कार किया गया। कुरुक्षेत्र के निवासी और दिल्ली में पढ़े-लिखे 37 वर्षीय राहुल शर्मा को 2002 में आईपीएस अधिकारी के रूप में दुर्ग में पहली पोस्टिंग मिली थी। उन्होंने दंतेवाडा एसपी के तौर पर काफी नाम कमाया। एक वक्त उन्होंने नक्सली मुठभेड़ में घायल जवानों को कंधे पर लादकर मदद पहुंचाई थी। तब वह बिलासपुर में पुलिस अधीक्षक थे. उनके अंतिम संस्कार में उनके कई परिजन मित्र, मातहत और अंत्येष्टि में हुजूम उमड़ पड़ा।
मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह भी अंत्येष्टि में पहुचे। राहुल शर्मा की मौत पर मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कहा है कि हमने एक कर्मठ पुलिस अधिकारी को खो दिया है। प्रदेश के गृहमंत्री ननकी राम कंवर ने राहुल शर्मा आत्महत्या की घटना की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं।

आखिर क्यों चुनी मौत?

राहुल बहुत ही खुश मिजाज़, जिंदादिल और विषम से विषम परिस्थितियों में हार न मानने वाले व्यक्तियों में से थे। उनके द्वारा खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर लेने की बात असंभव सी लगती है। जिसकी गंभीरता से जांच होना बेहद ज़रूरी है। अजय ने बताया कि पुलिस की नौकरी में छोटी-बड़ी समस्याएं तो रोज़ आती हैं लेकिन मैं ये कतई मानने को तैयार नहीं राहुल जैसा जिंदादिल पुलिस अधिकारी आत्महत्या जैसा कदम उठाने के बारे में सोच सकता है। वहीं भड़ास4पुलिस को राहुल के मातहतों के माध्यम से पता चला है कि वह कुछ घंटे पहले तक बिल्कुल ठीक-ठाक थे, कहीं से भी ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था कि वह किसी मानसिक दबाव में थे। वह इस तरह का कदम उठाएंगे ऐसा किसी को अंदेशा भी नहीं था। वहीं इस घटना के बाद पूरा पुलिस महकमा सकते में है। आत्‍महत्‍या करने वाले अधिकारी राहुल शर्मा की उम्र 38 वर्ष बताई जा रही है। उसकी छत्‍तीसगढ़ के कई खतरनाक इलाकों में तैनाती रह चुकी है। जिनमें नक्‍सल से प्रभावित इलाका दंतेवाड़ा भी शामिल रहा है।

2002 बैच के आईपीएस अधिकारी राहुल बिलासपुर से पहले रायगढ़ में बतौर एसपी तैनात थे। राज्यपाल के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी के रुप में काम कर चुके राहुल शर्मा का इसी साल 6 जनवरी को राहुल शर्मा का तबादला बिलासपुर के लिए हुआ था।
नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित जिले दंतेवाड़ा में भी राहुल शर्मा की एसपी के रूप में तैनाती रही है। जहां वे करीब दो साल तक तैनात रहे। इस दौरान राहुल ने नक्सलियों के खिलाफ कई अभियानों का खुद नेतृत्व किया था। हालांकि, राहुल के कार्यकाल में नक्सलियों से हुई कुछ मुठभेड़ों में पुलिस के लिए काम कर रहे एसपीओ द्वारा 2009 में स्थानीय बेकसूर लोगों के मारे जाने का आरोप लगने से वे विवादों में भी आए थे। राहुल ने तब इन आरोपों पर कहा था, ‘यहां (नक्सल प्रभावित इलाकों में) हिंसा बढ़ेगी क्योंकि ये जंग जैसे हालात हैं। हमने जितनी भी मुठभेड़ की है, उसमें यही कहा गया है कि हमने निर्दोष लोगों को मारा है।

जब से बिलासपुर आए, तब से जीना हराम हो गया था उनका

 एसपी राहुल शर्मा की खुदकुशी के दो दिनों बाद उनके पिता, पत्नी व परिजन खुलकर सामने आए। परिजनों ने उनकी मौत के पीछे पुलिस सिस्टम को दोषी माना है, साथ ही इस मामले में एफआईआर दर्ज करने की मांग शासन से की है। शर्मा के पिता आरके शर्मा ने राज्य शासन द्वारा सीबीआई जांच की घोषणा को सही ठहराया है।
उन्होंने यह भी कहा कि न्याय मिलने तक उनकी लड़ाई जारी रहेगी। वे मानवाधिकार आयोग से भी पूरे मामले की शिकायत करेंगे। दिवंगत एसपी की पत्नी जी.गायत्री शर्मा ने कहा कि सिस्टम में समय रहते सुधार लाना चाहिए, ताकि भविष्य में कोई अधिकारी या कर्मचारी इसका शिकार न बने। वहीं दो दिन बाद भी उनका लैपटाप नहीं मिला।
एसपी राहुल शर्मा के दादा 90 वर्षीय बसंतराम शर्मा ने कहा कि करीब 8-10 दिनों पहले उनकी अपने पोते से बात हुई थी। इस दौरान उन्होंने बताया था कि विभाग के सीनियर अफसर उन्हें काम करने नहीं दे रहे हैं। इससे वे काफी परेशान हैं। उन्होंने पोते की मौत के लिए विभाग के वरिष्ठ अफसर को दोषी करार दिया है। उन्होंने मांग की कि जो भी अधिकारी दोषी है, उसे तत्काल निलंबित कर उसके खिलाफ जुर्म दर्ज किया जाए।
ताकि कोई और शिकार न हो : गायत्री
राहुल की पत्नी जी. गायत्री शर्मा ने पत्रकारों से कहा कि उनके पति सिस्टम के शिकार हुए हैं। वे जब से बिलासपुर आए थे, तब से उन्हें काम करने नहीं दिया जा रहा था। इससे वे बेहद परेशान थे। भविष्य में कोई अधिकारी या कर्मचारी डिप्रेशन में आकर ऐसा कोई कदम न उठाए, इसके लिए पुख्ता जांच और कार्रवाई की जानी चाहिए।
उनके पति ने अपने काम में दखल को लेकर कई बार उच्चधिकारियों से भी की थी,लेकिन ध्यान नहीं दिया गया। एसपी को आशंका थी, गायब हो जाएगा नोट, आमतौर पर सुसाइड नोट लिखने वाला व्यक्ति उसे मृत्यु पूर्व जेब व ऐसी जगह छोड़ जाता है, जहां पुलिस या परिजनों की तत्काल नजर पड़ जाए। शर्मा को शायद आशंका थी कि बाहर होने पर उनका सुसाइड नोट गायब हो जाएगा। इसीलिए उन्होंने इसे अपने ब्रीफकेस में रखना मुनासिब समझा होगा।

(Source: Bhadas4police.com) 

एनकाउंटर का यह है LIVE वीडियो

मुंबई. 90 का दशक मुंबई में अंडरवर्ल्ड के बढ़ते खूनी खेल का दशक था. इस खतरनाक खेल का शिकार केवल गैंग के गुर्गे ही नहीं हो रहे थे, बल्कि आम लोगों का जीवन भी दूभर होता जा रहा था.
महाराष्ट्र सरकार के लिए यह सब एक बड़ा सिरदर्द बन चुका था. सरकार ने अपराध के इस खूनी खेल को ख़त्म करने के लिए एंटी टेररिस्ट स्क्वैड का गठन किया और एडिशनल पुलिस कमिश्नर ए. ए. खान को इसका प्रमुख बनाया.
खान ने इस गैंगवार को ख़त्म करने का बीड़ा उठाया. जब उन्हें पता चला कि एक खतरनाक गैंग लोखंडवाला के एक मकान में छुपा हुआ है तो उन्होंने अपने साथियों के साथ हमला बोल दिया.
इस कड़ी में हम आपको लोखंडवाला में हुए उस शूटआउट का पहला लाइव कवरेज वाला वीडियो दिखा रहे हैं. गौरतलब है कि इस एनकाउंटर को महाराष्ट्र पुलिस के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा और खतरनाक एनकाउंटर माना जाता है जिसे 16 नवम्बर 1991 की दोपहर में अंजाम दिया गाया था.
इसी एनकाउंटर को आधार बनाकर शूटआउट एट लोखंडवाला नाम से एक हिंदी फिल्म का भी निर्माण किया गया जो 2007 में रिलीज हुई थी.
(Source : Dainik Bhaskar)

शपथ और बेटी के लिए न्याय

(Panjab)मोहाली. प्रकाश सिंह बादल बुधवार को चप्पड़चिड़ी में अपने वजीरों के साथ मुख्यमंत्री बनने की शपथ लेने आए थे। भीड़ में मुश्किल से समारोह के अंदर अपनी 15 वर्षीय बेटी के लिए न्याय की गुहार लेकर पहुंची धूरी की एक महिला किरण। हालांकि किरण को सुरक्षा कारणों के चलते सुरक्षाकर्मियों ने उसे मुख्यमंत्री बादल से नहीं मिलने दिया।

किरण ने बताया कि वो धूरी के पास गांव मोली कलां की रहने वाली है। बाहर से आकर गांव में रहने लगी थी। किरण ने बताया कि उसकी 15 वर्षीय बेटी सुनीता काफी समय से गायब है जिसे उसके गांव के ही पूर्व सरपंच ने कहीं गायब किया है। बार-बार कहने पर भी उसे उसकी बेटी के बारे में नहीं बताया जा रहा।

किरण ने आरोप लगाया कि पुलिस भी उसकी बात नहीं सुन रही है जबकि वो कई बार इस मामले के बारे में पुलिस को बता चुकी है। किरण ने कहा कि उसे पता है कि सीएम यहां शपथ लेने आए हैं लेकिन वह तो न्याय मांगने आई है।

दागदार हुई 'खाकी'!

(U.P.)कानपुर। कहते है प्यार अन्धा होता है, प्यार किसी धर्म किसी भेद भाव को नहीं मानता, प्यार अमीरी गरीबी के फासले को भी नही समझता और ये सच भी है क्योंकि प्यार करने वाले समाज की हर हद को पार कर कुछ भी कर गुजरने को तैयार होते हैं लेकिन अगर ये प्यार किसी आम इंसान का न होकर खाकी का हो तो अंजाम की हद क्या होगी, इसका अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल होगा।

कुछ ऐसी ही खाकी की बदनाम मोहब्बत कानपुर में मंगलवार को देखने को मिली जहां कानपुर में ही एडिशनल एसपी रहे, एक 56 साल के बुजुर्ग को एक 16 साल की लड़की से मोहब्बत हो गयी और फिर प्यार कुछ इस कदर परवान चढ़ा की जबरन आवाम की हिफाज़त करने वाली खाकी, लड़की के पिता को धमकाकर उसके घर ही में उसी के पिता के सामने ही रासलीला रचाने लगा।

कानपुर के छावनी थाने में जहां रात के अंधेरे में पुलिस के सामने वो केस आया जिसे सुलझाने के चक्कर में खुद यहां की पुलिस ही उलझ गयी क्योंकि इस मामले में खाकी को खाकी के खिलाफ ही कार्यवाही करनी पड़ सकती है।

कभी इसी छावनी थाने के सर्किल ऑफिसर रहे अमरजीत सिंह शाही नाम के पुलिस अधिकारी के खिलाफ छावनी थाने में ही एक मामला आया। जिसमे एक नाबालिक लड़की के पिता ने सीओ साहब के खिलाफ अपनी लड़की को बहला फुसला कर उसके साथ शारीरिक शोषण करने का मुकदमा दर्ज करा दिया है।

पीड़ित पिता का कहना है कि वो लगातार इस बात कि शिकायत करता रहा लेकिन सीओ साहब नहीं माने और मना करने पर उसे हमेशा धमकी देते रहे कि यदि कहीं शिकायत करी तो फर्जी मुकदमों में फंसा देंगे।

ऐसे में एक मजबूर पिता अपनी ही निगाहों के सामने अपनी बेटी की नादानी के कारण उसकी अस्मत को लगातार तार-तार होते देखने को मजबूर हो गया लेकिन जैसे ही सीओ का ट्रांसफर कानपुर से प्रतापगढ़ हुआ तो इस मजबूर पिता ने इस पूरी घटना कि जानकारी कानपुर के आईजी और डीआईजी को दी।

जिसके बाद भी अब तक पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की जब लड़की ने आत्महत्या के इरादे से डाई पीकर जान देने की कोशिश की तब जाकर पुलिस ने इस पूरे मामले में कार्यवाही करने के लिए पहला कदम आगे बढ़ाया।

आम तौर पर इस तरह के मामलो में जहां लड़की नाबालिग होती है और केस ठीक इसी तरह का होता है, उसमे यही पुलिस लड़के को अपहरण और बलात्कार जैसी जघन्य धाराओं में जेल भेज कर कार्यवाही करने का राग अलापती नजर आती है लेकिन आज पुलिस इस तरह की कोई कार्यवाही न करने के साथ इस पूरे मामले में पीड़ित पिता के साथ लगातार शारीरिक शोषण का शिकार बन रही लड़की व सीओ अमरजीत सिंह शाही तीनों लोगों की तहरीर लेकर जांच के बाद कार्यवाही करने की बात कह रही है।

बता दें कि सीओ अमरजीत सिंह शाही के बसपा प्रशासन में रहे रसूक के कारण ही कानपुर के आईजी व डीआइजी जैसे बड़े अधिकारियों ने भी मामले की जानकारी दो माह पहले होने के बावजूद भी इस सीओ के खिलाफ किसी भी तरह की कोई भी कार्यवाही को अंजाम देने की हिमाकत ही नहीं की।

वहीं डीआइजी ने आज मामले के तूल पकड़ने के बाद मीडिया के माध्यम से जानकारी लगने की बात कही और उसके बाद जब पुलिस अस्पताल पहुंची तो ऑन ड्यूटी प्रतापगढ़ से लखनऊ में रहने वाले यही आशिक मिजाज सीओ अमरजीत सिंह शाही पहले से ही अस्पाल में कानपुर पुलिस को मिले।

जिसके बाद सीओ समेत पीड़ित पिता व उसके परिवार को पुलिस कानपुर के कैंट थाने में ले आई। जहां पूछताछ के दौरान सभी कडियां खुलने लगी लेकिन मामला खाकी का है और सजा का तरीका यानी क़ानून का इस्तेमाल भी खाकी को ही करना है, इसलिए पुलिस ने बजाय सीओ के खिलाफ सख्ती से कार्यवाही करने के तीनों पक्षों की तहरीर लेकर जांच करने की बात कही।

खाकी की गिरफ्त में आए खुद खाकी के सिपहसालार अमरजीत सिंह शाही का सच समाज के सामने जरूर आ गया है लेकिन फिर भी वर्दी के पीछे छिपे इस शातिर पुलिस अधिकारी का शातिराना अंदाज अभी कम नहीं हुआ है क्योंकि मामला खाकी का था इसलिए पुलिस ने एक कमरे में लड़की और सीओ को बातचीत का मौक़ा दे दिया। जिसके बाद अब सीओ साहब अपनी गलती को मानने के बजाए खुद लड़की के पिता पर ही आरोप लगा रहे हैं।

समाज को इस तरह के अपराधों से बचाने के लिए तैनात किए गए ये ऐसे अधिकारी है जो खुद को बचाने के लिए एक पिता पर उसकी ही बेटी के साथ अवैध संबंध होने की बात कह रहे हैं और साथ ही खुद को इस लड़की को पिता के शोषण से बचाने की बात कह रहे हैं।

अमजीत सिंह शाही की माने तो इस लड़की का अब तक कई बार गर्भपात भी हो चुका है। वही पीड़ित पिता द्वारा सीओ साहब की कॉल डिटेल निकलवाई गई तो उसमें जो सच सामने आया वो बेहद चौकाने वाला था। कॉल डिटेल में एक माह के भीतर दोनों के बीच तीन-तीन घंटे तक बात हुई है और लगभग 1300 कॉल्स एक माह में हुई थी।

वहीं सवाल ये भी उठता है कि दो माह पहले अमरजीत सिंह शाही कि तैनाती कानपुर में ही थी और पीड़ित पिता एमसी विद्यार्थी का घर इन्हीं के सर्किल में था यदि इस तरह कि कोई घटना को पिता द्वारा अंजाम दिया जा रहा था तो इन्होंने उस वक्त इस पिता के ऊपर कार्यवाही क्यों नहीं की जबकि ये उसी सर्किल में एडिशनल एसपी यानी सीओ के पद पर तैनात थे और सभी चीजे इनके कार्य क्षेत्र में थी। बहरहाल कानपुर पुलिस की निगाहों के सामने पूरा मंजर आ तो गया है, कानपुर पुलिस इस वक्त अपने एक अधिकारी को बचाने का भरसक प्रयास कर रही है।

साभार- bhadas4police.com

Tuesday 13 March 2012

सोनिया गांधी की 'धन-दौलत' की होने लगी है खूब चर्चा

इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अपनी धन-संपदा को लेकर खूब चर्चा का विषय बन गई हैं। दावा किया जा रहा है कि सोनिया गांधी दुनिया की चौथी सबसे दौलतमंद राजनीतिज्ञ हैं। अमेरिकी वेबसाइट 'बिजनेस इनसाइडर' ने यह दावा किया है। वेबसाइट के अनुसार सोनिया के पास 10,000 से 45,000 करोड़ के बीच ($2-19 billion) की संपत्ति है।

सावित्री जिंदल सातवें नंबर पर
बिजनेस इनसाइडर ने विश्व के सबसे धनवान राजनेताओं की लिस्ट जारी की है। इसमें कांग्रेस अध्यक्ष को चौथे नंबर पर रखा है। सूची में सोनिया से पहले न्यूयॉर्क के मेयर माइकल ब्लूमबर्ग (तीसरे नंबर), रुनेई सुल्तान हस्सानल बोलकियाह (दूसरे नंबर) और सऊदी अरब के किंग अब्दुल्लाह बिन अब्दुल अजीज शाह (पहले नंबर) पर हैं। इस लिस्ट में हरियाणा की विधायक और जिंदल समूह की प्रमुख सावित्री जिंदल का नाम भी शामिल है। जिंदल सूची में सात नंबर पर हैं।

जर्मनी का अखबार छाप चुका है खबर
'बिजनेस इनसाइडर' ने वर्ल्ड्स लग्जरी गाइड का हवाला देते हुए लिस्‍ट छापी है। साथ ही यह भी लिखा गया है कि यह रिपोर्ट OpenSecrets.org, Forbes.com, Bloomberg.com, Wikipedia.org, Guardian.co.uk से मिली जानकारी के आधार पर तैयार की गई है। इससे पहले जर्मनी के अखबार 'Die Welt,' में भी इस बारे में खबर छपी थी। उसमें भी सोनिया गांधी चौथे स्थान पर हैं। अखबार के वर्ल्ड्स लग्जरी गाइड सेक्शन में विश्व के सबसे दौलतमंद 23 नेताओं की लिस्ट छापी गई थी।

वेबसाइट पर हो सकता है मुकदमा
पिछले आम चुनाव में सोनिया ने 50-75 लाख रुपए की संपत्ति बताई थी जबकि वेबसाइट पर 10,000-45,000 करोड़ की संपत्ति बताई है। दोनों ब्यौरे में बहुत अंतर है, ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि सोनिया वेबसाइट के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकती हैं। हालांकि कांग्रेस की ओर से इस खबर पर अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।
(लेख : अमर उजाला हिंदी समाचार पत्र से)

खनन माफिया से टकराने की कीमत

खनन माफिया से टकराने की कीमत अब एक युवा ईमानदार आईपीएस अधिकारी को जान देकर चुकानी पड़ी है। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के बानमोर में जांबाज पुलिस अधिकारी नरेंद्र कुमार सिंह की हत्या से जुड़ी यह घटना बताती है कि भ्रष्ट और आपराधिक तत्वों की व्यवस्था के भीतर कितनी गहरी पैठ है कि वे अपना हित साधने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।

इस युवा अधिकारी का कुसूर सिर्फ यह था कि उन्होंने इस इलाके में हो रहे अंधाधुंध अवैध खनन पर ऐतराज किया था, मगर बलुआ पत्थर से लदी एक ट्रैक्टर ट्रॉली के डाइवर को यह नागवार गुजरा और उसने उन्हें रौंद दिया, वह भी पुलिस चौकी से महज 500 मीटर दूर। मध्य प्रदेश के इस हिस्से से अवैध खनन की खबरें पहले भी आती रही हैं।

चंबल के इस इलाके में रेत और बलुआ पत्थर की बेशुमार खदानें हैं, जहां माफिया ने अपना पूरा तंत्र कायम कर रखा है। अवैध खनन से राजकीय संपदा को तो नुकसान हो ही रहा है, पर्यावरण पर भी बुरा असर पड़ रहा है। नरेंद्र यहां महीने भर पहले पदस्थ हुए थे, और अल्पावधि में ही उन्होंने अवैध खनन में लिप्त दर्जनों वाहन जब्त किए थे।

शिवराज सिंह चौहान सरकार भले ही किसी साजिश से इनकार कर रही है, मगर जैसा कि दिवंगत अधिकारी के पिता ने आरोप लगाया है, उन्हें स्थानीय स्तर पर पुलिस और अन्य विभागों का सहयोग नहीं मिल रहा था। हाल ही में इस अधिकारी की गर्भवती आईएएस पत्नी का तबादला भी राजनीतिक दबाव में किया गया था। यह इसलिए भी चिंता की बात है, क्योंकि खनन माफिया ने जिस तरह अपना जाल बिछाया है, उसे भेद पाना किसी भी ईमानदार अधिकारी के लिए बहुत मुश्किल है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यह सब राजनीतिक संरक्षण के बिना संभव ही नहीं!

आखिर गोवा से लेकर बेल्लारी तक यह देखा ही जा चुका है कि अवैध खनन का कारोबार चलता कैसे है। चिंताजनक यह भी है कि हाल के महीनों में भ्रष्टाचार और घोटालों पर काफी हंगामा होने के बावजूद आपराधिक तत्वों पर अंकुश नहीं लग पाया है। आखिर इससे पहले एस मंजूनाथ और सत्येंद्र कुमार दुबे जैसे युवा और प्रतिभाशाली अधिकारियों को भी भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ आवाज उठाने की कीमत जान देकर ही चुकानी पड़ी थी।

मालेगांव में भी एक अधिकारी को तेल माफिया ने जिंदा जला दिया था। सवाल है कि हमारी व्यवस्था में ईमानदार अधिकारियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसकी है? न्यायिक जांच तो ठीक है, मगर माफिया के राजनीतिक गठजोड़ पर कब चोट की जाएगी?
(लेख : अमर उजाला हिंदी समाचार पत्र से)

Monday 12 March 2012

किसानों की आत्महत्या

मध्यप्रदेश : भोपाल : सरकार के खेती को फायदा का धंधा बनाने के तमाम दावों के बीच किसानों की आत्महत्या रुकने का नाम नहीं ले रही है। बीते एक साल में साढ़े आठ सौ से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर जीवन लीला समाप्त कर ली। इसमें आदिवासी बहुल आलीराजपुर सबसे आगे रहा है। यहां 93 किसानों ने आत्महत्या की है। किसानों के अलावा करीब 11 सौ खेतीहर मजदूरों ने भी मौत को गले लगाया है। एक जनवरी 2011 के बाद से अब तक प्रदेश में कुल सात हजार 94 आत्महत्याएं हो चुकी हैं। जबकि 233 लोगों की खुदकुशी की कोशिश नाकाम रही।


यह खुलासा विधानसभा में गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता की ओर से रामनिवास रावत के सवाल के लिखित जवाब में हुआ है। गृहमंत्री ने बताया कि किसानों की आत्महत्या की ज्यादा घटनाएं आलीराजपुर (93)झाबुआ (65), कटनी (53), रीवा (75), सतना (63) और बैतूल (57) में सामने आई हैं। सालभर में कुल 14 किसानों ने आत्महत्या की कोशिश की लेकिन वे सफल नहीं हुए। वहीं श्योपुर, दतिया, टीकमगढ़, इंदौर, देवास, सिवनी और राजगढ़ ऐसे जिले हैं जहां किसान ने जीवन समाप्त करने का एक भी प्रकरण सामने नहीं आया। कृषि मजदूरों द्वारा आत्महत्या किए जाने की घटना सीधी (92) में सबसे ज्यादा हुई हैं। जबलपुर में (84), शहडोल में (68) और कटनी में 60 प्रकरण दर्ज किए गए हैं। गृहमंत्री ने यह भी बताया कि राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्या के मामले में प्रदेश का वार्षिक औसत 13 सौ 79 और देश में स्थान 17वां रहा है। इसी तरह 2009 में औसत संख्या 13 सौ 95 और स्थान 14वां और 2010 में औसत संख्या 12 सौ 37 व स्थान 15वां रहा है। 2011 के आंकड़ों का अभी संकलन किया जा रहा है।


जेल में 95 कैदी मरे

गृहमंत्री ने बताया कि पुलिस हिरासत में कुल 12 मृत्यु हुई हैं। इनमें से एक कृषि मजदूर रहा है। जबकि जेल में सालभर के दौरान 95 मौत के प्रकरण सामने आए हैं। इनमें तीन किसान और पांच मजदूर हैं। जेल में मृत्यु के सर्वाधिक 27 मामले उज्जैन में सामने आए हैं। जबकि इंदौर में 16 और ग्वालियर  में नौ ऐसे प्रकरण बने हैं। ग्वालियर में ही पुलिस अभिरक्षा में तीन की मृत्यु भी हुई है।

खाद्य सुरक्षा कानून 2006

खाद्य सुरक्षा कानून 2006 से निर्माण एवं विक्रेताओं का व्यवसाय खतरे में पड़ जाएगा। इस कानून के तहत आलू की चिप्स, पापड़, बड़ी, नमकीन, चाय के अलावा टिफिन सेंटर चलाने वाले लाइसेंस की परिधि में आ जाएंगे। अब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एनओसी भी जरूरी है जो ऐसे छोटे व्यवसायियों को मिलना संभव ही नहीं है।

शुरू हो चुका है विरोध : खाद्य सामग्री बेचने वाले सभी विक्रेता लाइसेंस की परिधि में हैं। बिना लाइसेंस के खाद्य पदार्थ बेचने पर एक से तीन लाख रुपए का जुर्माना तय किया गया है। इस कानून का विरोध पिछले माह राजस्थान में शुरू हो चुका है। व्यापारी 5 दिन तक व्यवसाय बंद करके सरकार को इसकी विसंगतियों के बारे में बता चुके हैं। कुछ और राज्यों में भी विरोध शुरू हो गया है।

ये हैं दायरे में : 5 अगस्त 2011 से लागू खाद्य सुरक्षा कानून में खाद्य पदार्थों का उत्पादन, वितरण, परिवहन एवं विक्रय चाहे बड़ी दुकानों से हो अथवा सिर पर रखकर खोमचे बेचने वाले, चना, मूंगफली के दाने अथवा समोसे, कचोरी, भेलपूरी, घर-घर पापड़, बड़ी आदि खाद्य सामग्री बेचने वाली महिलाओं को लाइसेंस लेना अनिवार्य होगा।

खाद्य पदार्थों का वितरण साइकल, रिक्शा, मेटाडोर अथवा ट्रक चाहे जिससे किया जा रहा हो, उन्हें भी लाइसेंस लेना होगा। भंडारण, वेयर हाउस, कोल्ड स्टोरेज, फुटकर व्यापार के अलावा 12 लाख रुपए वार्षिक बिक्री करते हैं, तो रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है। अन्यथा व्यापार नहीं कर सकेंगे। दूध-घी विक्रेता (दो टन से अधिक बिक्री करते हैं) तो उन्हें लाइसेंस मुंबई से लेना होगा।

देश में ऐसे लाइसेंस देने के लिए 5 जोन स्थापित किए गए हैं। मप्र मुंबई जोन में आता है। दो टन से कम माल बेचने वालों के लाइसेंस मप्र में ही बनेंगे। आवेदन के बाद स्थान देखेंगे, उसी के बाद लाइसेंस दिया जाएगा।

बढ़ेगा भ्रष्टाचार : लाइसेंस बनवाने वालों की संख्या अधिक होने एवं अधिकारी कम होने से भ्रष्टाचार फैलने की आशंका है। लाइसेंस लेने में यह शर्त भी रखी गई है कि जो कर्मचारी कार्यरत हैं, उनका स्वास्थ्य संबंधी प्रमाण-पत्र देना होगा।

उद्योग-व्यापारिक फर्मों को लाइसेंस लेने के साथ एक शपथ-पत्र देना होगा, जिसमें असत्य जानकारी देने पर 6 माह की सजा का प्रावधान है। यदि कोई फर्म भागीदारी की है तो आवेदन पर भागीदारों के हस्ताक्षर जरूरी हैं। साथ ही यह भी जानकारी देना है कि वे कहां-कहां उपलब्ध रहेंगे।

समस्याओं का गढ़ यूनिवर्सिटी

(Rajasthan) जयपुर। डगमगाई अर्थव्यवस्था के साथ राजस्थान विवि ढेरों समस्याओं से वर्षो से जूझ रहा है। हालात जब सिर से ऊपर गुजरे तो आक्रोश फूट पड़ा। विवि में रविवार को सिंडीकेट बैठक के दौरान यही हुआ। छात्र संघ पदाघिकारियों को मर्यादा भूल हिंसा की राह पकड़नी पड़ी। प्रशासनिक स्तर पर भी गरिमा तार-तार हुई। पुलिस को बल प्रयोग कर छात्र नेताओं को खदेड़ना पड़ा। लेकिन ऎसा क्या हुआ कि सारी हदें टूट गई। इसी की गहराई से तहकीकात की पत्रिका ने और जाना उन समस्याओं को जिन्होंने विवि में हंगामे के हालात पैदा कर दिए थे।
इतना शुल्क क्यों?
वर्षो तक टरकाने के बाद विवि ने उत्तर पुस्तिका दिखाने का 580 रूपए शुल्क तय किया। छात्र संघ पदाघिकारियों का कहना है कि जब उत्तर पुस्तिका का पुनर्मूल्यांकन के लिए 200 रूपए शुल्क है तो उसकी प्रति देने में शुल्क क्यों?
सिंडीकेट में प्रतिनिघित्व
विवि एक्ट के तहत सिंडीकेट में छात्रों को प्रतिनिघित्व मिलना चाहिए, लेकिन वर्षो से दो सीटें खाली हैं। छात्र संघ सीटें भरने की मांग वर्षों से कर रहा है। सिंडीकेट में शिक्षकों, सरकार, राज्यपाल और कुलपति के प्रतिनिघि हैं लेकिन छात्रों की सीट खाली है।
ऑनलाइन से परेशानी
विवि में पहली बार समस्त परीक्षा आवेदन ऑनलाइन माध्यम से भरे गए। कहा गया कि इससे समस्या नहीं होगी लेकिन हुआ उलटा।
अधर में रखने की प्रवृत्ति
विवि में कई समस्याओं को योजनाबद्ध टाला गया। शोध छात्र प्रतिनिघि चुनाव में विजयी प्रत्याशी ने दो जगह प्रवेश ले रखा था। अगस्त में चुनाव के बाद दूसरे स्थान पर रहे छात्र प्रतिनिघि ने शिकायत की, लेकिन सत्र समाप्त होने को है तब  जाकर शोध छात्र प्रतिनिघि का कार्यालय खाली कराया गया है।
सेमेस्टर परिणाम लटका
विवि स्नातकोत्तर विभागों में पहली बार सेमेस्टर व्यवस्था शुरू की है। प्रथम सेमेस्टर परीक्षा के दो माह बाद भी अघिकांश परिणाम नहीं आए। विवि ने दावा किया था कि परीक्षा के 15 दिन बाद परिणाम हो जाएंगे।
सुविधा विहीन परिसर
पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष मनीष यादव ने विवि के मुख्यद्वार के निकट सुविधाघर बनवाने की कई बार मांग की। छात्र संघ अध्यक्ष प्रभा चौधरी पिछले 6 माह से यही मांग कर रही है लेकिन समस्या जस की तस है।
 छात्र संघ के किसी भी पदाघिकारी ने कोई मांग नहीं की। सोमवार को बैठक में उन्होंने जो मांग रखी हैं उन पर कार्रवाई की जाएगी।
निष्काम दिवाकर, कुलसचिव, राज. विवि
 छात्र संघ पदाघिकारियों के खिलाफ एफआईआर नहीं करानी चाहिए। समस्याएं संवादहीनता से होती हैं। सिंडीकेट के प्रतिनिघिमंडल को छात्रों से बात करनी चाहिए थी।
प्रो. ए. डी. सावंत, पूर्व कुलपति
  छात्रों की मांगे कुलसचिव को बताई गई हैं। नियमों के तहत छात्रों की सभी मांग पूरी की जाएगी।
प्रो. टी.एन. माथुर, प्रशासनिक सचिव, कुलपति
  छह माह बाद भी सुलभ कॉम्पलेक्स नहीं बने। लाखों खर्च कर प्रशासनिक भवन में एयर कूलिंग सिस्टम लगाया जा रहा है, यह छात्रों के पैसे से हैं। सिंडीकेट में हमारी सीटें नहीं भरी जा रही हैं।
प्रभा चौधरी, छात्र संघ अध्यक्ष, राज विवि
महिला आयोग पहुंचा विवि का हंगामा
राजस्थान विश्वविद्यालय परिसर में कुलपति सचिवालय के बाहर प्रदर्शन के दौरान छात्रसंघ अध्यक्ष प्रभा चौधरी से अभद्रता का मामला राज्य महिला आयोग पहुंच गया है।
 प्रभा चौधरी ने सोमवार को आयोग अध्यक्ष लाडकुमारी से शिकायत की कि सिंडीकेट के दौरान कुलपति से मिलने गए थे, लेकिन वहां कुलपति के प्रशासनिक सचिव टीएन माथुर व राजेश शर्मा ने अपशब्दों का प्रयोग किया। इस पर आयोग अध्यक्ष ने कुलपति के प्रशासनिक सचिव माथुर से भी फोन पर घटना की जानकारी ली।
विवि में फिर प्रदर्शन
राजस्थान विश्वविद्यालय में सोमवार को भी छात्रों का विरोध प्रदर्शन जारी रहा। विश्वविद्यालय की ओर से छात्र संघ अध्यक्ष, महासचिव और उपाध्यक्ष के खिलाफ मामला दर्ज कराने के विरोध में छात्र संघ संयुक्त सचिव गौरव सैनी और एबीवीपी के मानसिंह के नेतृत्व में छात्रों ने विवि के मुख्यद्वार और कुलपति सचिवालय पर प्रदर्शन किया। छात्रों का आरोप था कि विवि प्रशासन छात्र नेताओं को प्रताडित कर रहा है। उन्होंने एफआईआर वापस लेने की मांग की।  सैनी का कहना है कि विवि प्रशासन मनमाने तरीके से नियम बना रहा है और छात्र प्रतिनिघियों को प्रताडित किया जा रहा है। बाद में छात्रों ने छात्र कल्याण अघिष्ठाता प्रो. आर. वी. सिंह से विवि प्रशासन के रवैये के खिलाफ विरोध जाहिर किया।
प्रशासनिक सचिव से मिले
छात्र संघ पदाघिकारियों ने विवि के प्रशासनिक सचिव और कुलसचिव से मुलाकात कर अपनी मांगें रखीं।
आरटीआई उत्तर पुस्तिका दिखाने के मनमाने शुल्क को वापस लेने, विघि परीक्षा के आवेदन की अंतिम तिथि बढ़ाने, सिंडीकेट में छात्रों को प्रतिनिघित्व देने, छात्राओं की सुरक्षा व्यवस्था के लिए विवि परिसर में विभिन्न स्थानों पर कैमरे लगाने आदि की मांग की गई। साथ ही विवि की ओर से पदाघिकारियों के खिलाफ दर्ज कराए मामले वापस लेने की मांग भी की गई।

इस कीचड़ की दुर्गध नहीं आती? ...भ्रष्ट भी श्रेष्ठ!

देश में जब लोकतंत्र लागू हुआ था, तब चुनावों की उम्मीदवारी आदर्शो पर आधारित होती थी। दोनों ही प्रमुख दल आदर्श चेहरों की तलाश में रहते थे। समय के साथ तलाश लगभग समाप्त ही हो गई। यूपी के चुनावों ने साबित कर दिया कि दोनों ही दल आचरण से इतने गिर गए कि उनके आगे अपराधी भी पहली पसन्द बन गए। यह है हमारे लोकतंत्र की साठ साल की कमाई। राजस्थान की कांग्रेस सरकार कहती है कि वह अधिकारियों के साथ है। चाहे वे कुछ भी कर लें। लगभग डेढ़ दर्जन अधिकारियों के विरूद्ध चल रहे मुकदमे वापस लेकर अपनी बात को प्रमाणित भी कर दिया। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारें अपराधियों (नेता एवं अफसर) को गले लगाकर गर्व महसूस करती रहती हैं। अभी दो दिन पूर्व ही लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज एवं म.प्र. के भाजपा अध्यक्ष प्रभात झा अपने ही एक विधायक के कुकृत्यों को ढकने के लिए बोल रहे थे। मानो कोई बड़ा पुण्य का कार्य किया हो, उन्होंने। पहले भी एक होटल के छापे में इनके नाम को दबा देने के लिए बहुत प्रयास हुए थे। क्या जनता को इस कीचड़ की दुर्गध नहीं आती? क्यों उसने इन दोनों दलों को सिरे से नकारना शुरू कर दिया। 


इन दोनों दलों में व्याप्त भ्रष्टाचार और यौनाचार ही देश की इस नारकीय स्थिति का जिम्मेदार पहलू है। भीतर आज दोनों ही दल एक हो चुके हैं। सोनिया गांधी और सुषमा स्वराज में कोई भेद नहीं रह गया है। बड़े नेताओं के बेटी-दामादों ने तो क्या नहीं कर दिखाया। वंशवाद भी छोटा पड़ गया इनके आगे। सही अर्थो में ये नेताओं के ही प्रतिनिधि हैं। यही क्षेत्रीय दलों के विकास तथा जनप्रतिनिधियों की खरीद-बेच का कारण भी है। दोनों ही आज धनाढ्य हैं। काले धन में डुबकियां लगा रहे हैं। धन बल और भुज बल के सहारे अपने मतदाता पर अत्याचार करके फूले नहीं समाते। यूपी में सरकार किसकी बनी, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि जिस मायावती को और जिस मुलायम सिंह को भ्रष्ट और गुण्डा माना जा रहा है अथवा कहा जा रहा है, उन दोनों को ही जनता ने कांग्रेस तथा भाजपा से तो श्रेष्ठ ही माना है। तब ये दोनों दल जनता की दृष्टि में कितने गिरे हुए होंगे? दोनों ही दलों के शीर्ष पुरूषों का धन माफिया के कार्यो में (हथियार-मादक पदार्थ-शराब-जमीन आदि) में लगा हुआ है। विदेशों में भी मूलत: सारा धन इन्हीं लोगों का तथा इनसे जुड़े रसूखदारों एवं उद्यमियों का ही है। जो भी बड़े-बड़े घोटाले अभी तक सामने आए हैं, वे भी इन्हीं दलों से सम्बन्धित हैं। नैना साहनी से लेकर भंवरी-पारसी-शहला मसूद जैसे जघन्य हत्याकाण्ड इन दलों के घिनौनेपन का इतिहास बयां करते हैं। आसुरी शक्तियों का यह कलयुगी रूप है। सत्ता और भोग का तो चोली-दामन का साथ रहा है। किन्तु अपनी ही भोग्या की हत्या के लिए सुपारी देना, हत्याकाण्ड में महिलाओं का जुड़ा होना तो कन्या भ्रूण हत्या से भी अधिक दुर्दान्त और दु:साहस का कार्य है। इन अपराधियों को सरकारी संरक्षण प्राप्त होना सरकार की चुनावी पात्रता को समाप्त कर देता है। किस मुंह से ये दोनों दल मतदाता के सामने चले जाते हैं? क्या वे अपने इसी आचरण को विस्तार देने के लिए समर्थन चाहते हैं? अच्छा होगा यदि सन् 2014 या (13) के आम चुनावों से पहले दोनों ही दल अपनी भूमिका एवं लक्ष्यों पर पुनर्विचार और मंथन करें। नए सिरे से जनता का विश्वास जीतने का ईमानदार प्रयास करें। वरना, इन राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों के गठन एवं विकास का मार्ग प्रशस्त होने के आसार तो बनने लग ही गए हैं। एक के हारने से दूसरा स्वत: ही जीत जाएगा, वे दिन अब लद गए।

इन दोनों दलों में व्याप्त भ्रष्टाचार और यौनाचार ही देश की इस नारकीय स्थिति का जिम्मेदार पहलू है। भीतर आज दोनों ही दल एक हो चुके हैं। सोनिया गांधी और सुषमा स्वराज में कोई भेद नहीं रह गया है। बड़े नेताओं के बेटी-दामादों ने तो क्या नहीं कर दिखाया। वंशवाद भी छोटा पड़ गया इनके आगे। सही अर्थो में ये नेताओं के ही प्रतिनिधि हैं। यही क्षेत्रीय दलों के विकास तथा जनप्रतिनिधियों की खरीद-बेच का कारण भी है। दोनों ही आज धनाढ्य हैं। काले धन में डुबकियां लगा रहे हैं। धन बल और भुज बल के सहारे अपने मतदाता पर अत्याचार करके फूले नहीं समाते। यूपी में सरकार किसकी बनी, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि जिस मायावती को और जिस मुलायम सिंह को भ्रष्ट और गुण्डा माना जा रहा है अथवा कहा जा रहा है, उन दोनों को ही जनता ने कांग्रेस तथा भाजपा से तो श्रेष्ठ ही माना है। तब ये दोनों दल जनता की दृष्टि में कितने गिरे हुए होंगे? दोनों ही दलों के शीर्ष पुरूषों का धन माफिया के कार्यो में (हथियार-मादक पदार्थ-शराब-जमीन आदि) में लगा हुआ है। विदेशों में भी मूलत: सारा धन इन्हीं लोगों का तथा इनसे जुड़े रसूखदारों एवं उद्यमियों का ही है। जो भी बड़े-बड़े घोटाले अभी तक सामने आए हैं, वे भी इन्हीं दलों से सम्बन्धित हैं। नैना साहनी से लेकर भंवरी-पारसी-शहला मसूद जैसे जघन्य हत्याकाण्ड इन दलों के घिनौनेपन का इतिहास बयां करते हैं। आसुरी शक्तियों का यह कलयुगी रूप है। सत्ता और भोग का तो चोली-दामन का साथ रहा है। किन्तु अपनी ही भोग्या की हत्या के लिए सुपारी देना, हत्याकाण्ड में महिलाओं का जुड़ा होना तो कन्या भ्रूण हत्या से भी अधिक दुर्दान्त और दु:साहस का कार्य है। इन अपराधियों को सरकारी संरक्षण प्राप्त होना सरकार की चुनावी पात्रता को समाप्त कर देता है। किस मुंह से ये दोनों दल मतदाता के सामने चले जाते हैं? क्या वे अपने इसी आचरण को विस्तार देने के लिए समर्थन चाहते हैं? अच्छा होगा यदि सन् 2014 या (13) के आम चुनावों से पहले दोनों ही दल अपनी भूमिका एवं लक्ष्यों पर पुनर्विचार और मंथन करें। नए सिरे से जनता का विश्वास जीतने का ईमानदार प्रयास करें। वरना, इन राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों के गठन एवं विकास का मार्ग प्रशस्त होने के आसार तो बनने लग ही गए हैं। एक के हारने से दूसरा स्वत: ही जीत जाएगा, वे दिन अब लद गए।
  Writer - गुलाब कोठारी
(लेख : From :  Rajasthan Patrika)

गरीब के तेल में 921 करोड़ का खेल : महाघोटाला

(Rajasthan) जयपुर। प्रदेश में सब्सिडी पर मिलने वाले केरोसिन तेल में हर साल करीब 921 करोड़ रूपए का महाघोटाला हो जाता है। सब्सिडी की लूट का यह नेटवर्क भले ही पुराना है, लेकिन राशि को लेकर सरकारी आकलन एकदम नया है। स्थिति यह है कि गरीबों के लिए प्रदेश में हर साल 51 करोड़ लीटर से अधिक तेल आवंटित होता है, जिसमें से 30 करोड़ लीटर से अधिक तेल इधर-उधर हो जाता है। खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग की ओर से तैयार एक रिपोर्ट में ये आंकड़े सामने आए हैं। रिपोर्ट में माना है कि यदि केन्द्र की केरोसिन कैश सब्सिडी स्कीम प्रदेश भर में लागू कर दी जाए, तो 60 प्रतिशत सब्सिडी बचाई जा सकती है। जबकि जितना तेल राज्य को सालाना आवंटित होता है उतना पूरा उठ जाता है।
पेंट कम्पनी और पम्प मालिक शामिल : जानकार सूत्रों के अनुसार इस तेल की कालाबाजारी में पेंट बनाने वाली छोटी-बड़ी इकाइयों से लेकर हाईवे पर स्थित डीजल-पेट्रोल पम्प मालिक तक शामिल हैं। एक केमिकल से तेल को डीजल जैसा करने के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में भी वाहनों में फूंका जाता है। नियमानुसार जिनके पास दो सिलेण्डर हैं उन्हें दो लीटर तथा एक सिलेण्डर वालों को तीन लीटर प्रति माह की दर से सब्सिडाइज्ड केरोसिन दिया जाता है।
कोटकासिम में पकड़ी कारस्तानी
मामले की पोल अलवर के कोटकासिम में चलाए गए पायलट प्रोजेक्ट केन्द्र सरकार की केरोसिन कैश सब्सिडी स्कीम ने खोली। यहां से प्रदेश के खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग को पता चला कि आधे लोगों में केरोसिन की मांग ही नहीं है।  योजना के तहत कोटकासिम में 25,843 राशनकार्ड धारी हैं, जिसमें से 13,700 के खाते खुलवाए गए। यहां हर माह 84000 लीटर तेल आवंटित होता था और पूरा उठ जाता था, लेकिन 5 दिसम्बर 2011 को शुरू हुई योजना से 57 प्रतिशत से अधिक तेल हर महीने बचाया जा रहा है। राशनकार्ड धारी गरीब लोगों के खातों में नकद सब्सिडी डालकर बाजार भाव से तेल खरीदने की प्रक्रिया लागू होते ही मात्र 36 हजार लीटर ही तेल उठा। छोटे से कोटकासिम के पिछले तीन महीने के आंकड़ों ने कालाबाजारी के बड़े खेल की ओर इशारा कर दिया।
...तो राजधानी में बचें दो करोड़ ली.
जयपुर में 4.15 करोड़ लीटर तेल सालाना आवंटित होता है, यदि यह स्कीम यहां लागू कर दी जाती है, तो दो करोड़ लीटर तेल की खपत गिर सकती है। जयपुर शहर व जिले के विभागीय सूत्रों ने बताया कि राशन कार्ड में फर्जी इंद्राज को रोकने के प्रयास के बाद भी खेल चालू है।

छत्तीसगढ़ की हीरा व टीन खदानों पर माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम की नजर

मोस्ट वांटेड माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम की नजरें अब छत्तीसगढ़ समेत चार राज्यों की खदानों पर हैं। वह राज्य की हीरा, टिन खदानों में अवैध खुदाई करवाना चाहता है। इसकी ज्यादातर खदानें ऐसे इलाकों में हैं, जहां नक्सलियों का दबदबा है। इसके लिए उसने माओवादियों से भी संपर्क बढ़ाना शुरू कर दिया है।

एक हजार करोड़ रुपए के निवेश की अपनी इस योजना पर उसने काम शुरू कर दिया है। भारतीय इंटेलिजेंस एजेंसियों ने राज्य की पुलिस को इस बारे में अलर्ट जारी कर उसके धंधों पर रिपोर्ट मांगी है। इंटेलिजेंस एजेंसियों के मुताबिक उसने सउदी अरब, पाकिस्तान के अलावा तजाकिस्तान, कजाकिस्तान और अजरबेजान जैसे देशों में भी निवेश किया है। वहां उसके अरबों रुपए तेल कंपनियों और खदानों में लगे हैं। पूरे भारत में उसने 4 हजार करोड़ से ज्यादा के निवेश की योजना बनाई है।



देश में सक्रिय असामाजिक तत्वों की ले रहा मदद ,फायनेंस कंपनी से पुष्टि

इंटेलिजेंस एजेंसियों की पड़ताल के दौरान कई अंतरराष्ट्रीय फायनेंस कंपनियों ने भी इसकी पुष्टि की है। दाऊद के अवैध धंधों का कारोबार 12 हजार करोड़ से ज्यादा का हो चुका है।

फरवरी में किया अलर्ट

फरवरी 2012 में देशभर की पुलिस को दाऊद की योजना से वाकिफ कर अलर्ट किया था। केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ पुलिस को उसके इस नए धंधे के बारे में विस्तृत रिपोर्ट मांगी है।

नक्सलियों से हाथ मिलाया

खुफिया तंत्र के मुताबिक दाऊद ने नेपाल के माओवादी नेताओं के जरिए अपने संपर्को को बढ़ाना शुरू कर दिया है। वह छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में नक्सलियों की मदद से यह धंधा फैलाना चाहता है। इन राज्यों में उसके गुर्गे लगातार पैठ बढ़ाते जा रहे हैं। नक्सली उसके इस काम में मदद कर घातक हथियारों के लिए उससे हाथ मिला सकते हैं।

सिमी कर रहा मदद

खुफिया सूत्रों के मुताबिक सिमी (स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया) भी देश में दाऊद के इस धंधे को बढ़ाने में मदद कर रहा है। नक्सलियों और दाऊद के रिश्तों की पीछे लश्कर के हाथ को देखा जा रहा है। लश्कर का इरादा नक्सलियों की मदद से देश के अंदर बड़ी वारदातों को अंजाम देना है। इसके बदले लश्कर नक्सलियों को अत्याधुनिक हथियार और विस्फोटक देना चाहता है। पिछले तीन सालों से इस प्लान पर काम चल रहा है। इसकी पुष्टि दिल्ली में गिरफ्तार किए गए लश्कर के नेता से हुई पूछताछ में हुई है।
(लेख : From :  दैनिक भास्कर)

पक्षपात और पूर्वग्रहों की राजनीति

जिस तरह कुछ फूल एक खास मौसम में ही खिलते हैं, उसी तरह भारत की राजनीति भी चुनाव के मौसम में ही अपना असली रंग दिखाती है। राजनीतिक दलों की रणनीतियों को देखें तो बड़ी आसानी से पता लगाया जा सकता है कि भारत के मतदाताओं की प्राथमिकताएं क्या हैं या वे किसी को क्यों वोट देते हैं।

उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए राजनीतिक दलों द्वारा जो घोषणाएं की गई हैं, वे चाहे कितनी ही विचित्र, विवादास्पद या अनैतिक क्यों न हों, लेकिन वे हमें यह जरूर बताती हैं कि एक औसत भारतीय मतदाता को क्या लुभाता है। विवेकसंगत, सुशिक्षित और आधुनिक सोच रखने वाले राजनेता भी वोट जुगाड़ने के लिए घिसे-पिटे कदम उठाने से नहीं चूकते। लेकिन वे यह नहीं सोचते कि उनके द्वारा उठाए जाने वाले कदमों का समाज पर क्या दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।

उत्तर प्रदेश में भाजपा ने बाबूसिंह कुशवाहा से नाता जोड़ लिया, जबकि उस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। भाजपा के इस कदम की फौरन तीखी प्रतिक्रिया हुई।

लोग सोचने लगे कि भ्रष्टाचार के विरोध में रथयात्रा निकालने वाली भाजपा को आखिर ऐसी कौन-सी मजबूरी आन पड़ी, जो उसे यह कदम उठाना पड़ा। मीडिया ने इसके लिए भाजपा की चाहे कितनी ही मलामत क्यों न की हो, लेकिन भाजपा ने यह फैसला बिना सोचे-समझे नहीं लिया था। अन्य पिछड़ा वर्ग में आने वाले कुशवाहा समुदाय की उत्तर प्रदेश में लगभग दस फीसदी आबादी है। जाहिर है किसी जाति विशेष का समर्थन अर्जित करने का चुनावी परिणामों पर भारी असर पड़ता है। उत्तर प्रदेश के वोट बैंक के इतने लुभावने हिस्से को अपने पक्ष में कर लेने का लोभ संवरण कर पाना भाजपा के लिए मुश्किल ही था।

लेकिन कांग्रेस द्वारा ओबीसी कोटे में अल्पसंख्यक कोटे की घोषणा करने को भी इससे बेहतर कदम नहीं बताया जा सकता। जब आप यह पढ़ रहे होंगे, तब कांग्रेस के नेता पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी इस घोषणा पर इतराते फिर रहे होंगे। भाजपा और कांग्रेस के इन दोनों ही कदमों का समाज पर गहरा असर पड़ सकता है और वे भारतीय मूल्यों को भी दागदार कर सकते हैं।

पहला कदम कहता है कि यदि किसी व्यक्ति की जाति राजनीतिक समीकरणों के अनुरूप है तो भ्रष्टाचार जैसे पाप को भी माफ किया जा सकता है। यह कदम साफ-साफ बताता है कि हम ईमानदारी से ज्यादा जातिवाद को महत्व देते हैं। दूसरे कदम यानी अल्पसंख्यक आरक्षण के परिणाम तो और गंभीर हो सकते हैं।

यह हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच की खाई को और चौड़ा कर सकता है। यह धर्म के आधार पर विशेषाधिकारों और लाभों को स्वीकृति देता है। मुझे नहीं लगता यह कदम उठाते समय इसके दूरगामी परिणामों पर गंभीरता से विचार किया गया होगा।

जरा सोचें, जाति बदलना संभव नहीं है, लेकिन धर्मातरण किया जा सकता है। तो क्या हम एक ऐसे परिदृश्य का निर्माण करने जा रहे हैं कि यदि किसी हिंदू लड़के को जॉब या कॉलेज में एडमिशन नहीं मिल सकता, तो वह मुस्लिम बन जाए ताकि उसे कोटे के तहत जॉब या एडमिशन मिल जाए? ऐसी नीति को अमल में लाना तो दूर, उसकी घोषणा भी आखिर कैसे की जा सकती है?

इसका दुखद पहलू यह है कि इस आरक्षण से मुस्लिमों को भी ज्यादा लाभ नहीं मिलने वाला। मुस्लिमों को मुख्यधारा में आने के लिए अच्छी शिक्षा, उद्यमशीलता और सशक्तीकरण की जरूरत है। आज अनेक मुस्लिम अपनी प्रतिभा और लगन के बूते नेशनल आइकॉन बन पाए हैं।

मुस्लिमों को इस तरह की बेतुकी चुनावी सौगातों की नहीं, बल्कि ऐसे परिवेश की दरकार है, जो उनकी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर दे। क्या हम किसी ऐसे व्यक्ति को अच्छा पिता कहेंगे, जो अपने बच्चे को पढ़ाई के लिए किताबें खरीदकर देने के बजाय उसे टॉफियां देकर खुश कर देता है?

बहरहाल, मैं इसके लिए राजनेताओं को दोष नहीं देता। शायद ऐसी स्थिति में हम भी ऐसा ही करते। समस्या भारतीय मतदाताओं या कहें हमारे साथ है। हमारा महान भारतीय मस्तिष्क पूर्वग्रहों से भरा हुआ है। इस तरह के पूर्वग्रहों को सदियों के उत्पीड़न, भेदभाव और दूसरों से श्रेष्ठ होने की मानसिकता ने जन्म दिया है।

इन्हीं ने हमारा मौजूदा लोकतंत्र रचा है, जिसमें सर्वानुमति के बजाय कर्कशता ज्यादा है। संसद या विधानसभाओं में हम अक्सर जिस तरह का हंगामा देखते हैं, वह और कुछ नहीं, बल्कि भारतीय मानस में बसी अराजकताओं और भ्रमों की ही तस्वीर है। यहां तक कि हमारे सुशिक्षित लोग भी पूर्वग्रहों से अछूते नहीं हैं।

इसे बड़ी आसानी से जांचा जा सकता है। क्या आप अपने भाई-बहन या बच्चों को दूसरे समाज या धर्म के व्यक्ति के साथ विवाह करने की इजाजत देंगे? यदि आपका जवाब ना है, तो मुझे खेद के साथ कहना पड़ेगा कि आप भारतीय टीम के लिए चाहे कितनी ही तालियां बजाते हों, राष्ट्रगान बजते समय सावधान की मुद्रा में खड़े रहते हों या तिरंगे का पूरा सम्मान करते हों, लेकिन हकीकत यही है कि आप पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं। और जब तक हममें से ज्यादातर लोग पूर्वग्रह से ग्रस्त रहेंगे, तब तक हमें ऐसा ही भ्रमित और दोयम दर्जे का नेतृत्व मिलेगा।

सामाजिक कार्यकर्ता चाहे जितने ही अनशन कर लें और अर्थशास्त्री चाहे जितनी बेहतर नीतियां सुझा दें, जब तक हम खुद को सबसे पहले एक भारतीय नहीं मानेंगे, तब तक यही होता रहेगा। हां, दलितों के साथ अतीत में बुरा बर्ताव हुआ है और कुछ के साथ अब भी होता है। हां, मुस्लिमों के साथ भेदभाव हुआ है और कुछ के साथ अब भी होता है, लेकिन हालात सुधरे हैं और यदि हम पूर्वग्रहों से पीछा छुड़ा लें तो और तेजी से सुधर सकते हैं।

यदि हम अब भी नहीं बदले तो समझ लीजिए कि हम बर्बादी की ओर बढ़ रहे हैं। समाज में अनिर्णय और अक्षमता की स्थिति होगी और देश का विकास थम जाएगा। युवा पीढ़ी के लिए अच्छी शिक्षा और रोजगार हासिल करना और मुश्किल हो जाएगा।

यदि हम अपने नेताओं का निर्वाचन उनके द्वारा हमें दी गई टॉफियों के आधार पर करते हैं, तो अपनी नियति के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। हालांकि चुनाव आ रहे हैं और वे हमें एक और मौका देंगे कि या तो हम पहले की तरह अपने पूर्वग्रहों को व्यक्त करते रहें, या उनसे हमेशा के लिए मुक्त हो जाएं। आप क्या करने जा रहे हैं? -लेखक : चेतन भगत, अंग्रेजी के प्रसिद्ध युवा उपन्यासकार हैं। (लेख : From :  दैनिक भास्कर)

किसका नफा किसका नुकसान : लोकपाल बिल

यह अच्छी बात है कि लोकपाल बिल एक हकीकत बनने के करीब है और आशा करें कि राज्यसभा भी उसे मंजूरी दे देगी। बहरहाल, यूपीए के राजनेता सार्वजनिक रूप से चाहे जितना ही ‘अन्नाजी ये’ और ‘अन्नाजी वो’ करते रहें, लेकिन वास्तविकता यह है कि टीम अन्ना उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती। चाहे अन्ना के विरोध में कोई भी बात कही जाने पर यूपीए सदस्यों के चेहरे पर आने वाली कुटिल हंसी हो या अन्ना से संबंधित चलताऊ जोक्स सुनाए जाने पर संसद में उनके द्वारा उत्साह से टेबल बजाना हो, आप देख सकते हैं कि यूपीए के नेता अन्ना को नीचे गिराने के लिए कितने बेचैन हैं।

यूपीए के कुछ बहादुर नेताओं ने अन्ना को नीचे गिराने की जी-तोड़ कोशिशें भी की थीं। वे नाकाम रहे और अपनी बची-खुची प्रतिष्ठा में पलीता लगाकर देश में सबसे ज्यादा हंसी के पात्र बनने वाले नेता बन गए। यूपीए के बाकी सदस्य शायद सोच रहे होंगे कि आखिर कैसे यह बूढ़ा अनिर्वाचित व्यक्ति जनता के लिए किसी आम सांसद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है।

शायद यह भी संभव है कि मुंबई में अपना अनशन समाप्त करने के बावजूद अन्ना अपने आंदोलन के दूरगामी लक्ष्यों को अर्जित करने में कामयाब हो जाएं और नेताओं के अधिकारों और शक्तियों पर हमेशा के लिए अंकुश लग जाए। उनकी परेशानी का एक सबब यह भी है कि अन्ना और उनकी टीम ने अभी तक आमतौर पर हठधर्मिता ही दिखाई है और यूपीए की हर चालाक तरकीब से बचने का रास्ता खोज निकाला है। उन्हें मौजूदा बिल अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं लगा था (हालांकि वह अगस्त में प्रस्तावित बिल की तरह निराशाजनक नहीं है) तो उन्होंने एक और जंग का बिगुल बजाने में देरी नहीं की थी।

लेकिन मीडिया अन्ना को पसंद करता है और यूपीए की एक स्याह तस्वीर पेश करता है। आज यह स्थिति है कि यूपीए के हर राजनेता को भ्रष्ट या किसी भ्रष्ट नेता का अनुचर मान लिया गया है, जो कि पूरी तरह ठीक नहीं है। यूपीए सत्ता में है, लेकिन इसके बावजूद आज उसके पाले में होना बहुत आरामदायक अनुभव नहीं हो सकता।

लिहाजा यूपीए के किसी भी व्यक्ति के लिए अन्ना को नापसंद करने के कई जाहिर कारण हैं। शायद वे लगातार यही सोचते रहते हैं कि अन्ना से कैसे पीछा छुड़ाया जाए और बेसब्री से उस दिन का इंतजार करते हैं, जब अन्ना देश के लिए अप्रासंगिक हो जाएंगे। लेकिन इसके बावजूद अन्ना वास्तव में एक ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं, जिनके प्रति यूपीए को मैत्रीपूर्ण होना चाहिए। क्योंकि अगर सरकार के उग्र विरोधियों से तुलना करें तो टीम अन्ना के सदस्य नेक ही साबित होते हैं। वे अब भी अहिंसा जैसे गांधीवादी आदर्शो में विश्वास करते हैं और बैठक-विचार करने को तत्पर रहते हैं। वे मीडिया के सवालों का जवाब देते हैं।

वे अपनी धारणाओं में दृढ़ता से भरोसा रखते हैं और अपनी बातें समझाने का पूरा प्रयास करते हैं। काफी हद तक टीम अन्ना का कोई निजी एजेंडा नहीं है और उसके सदस्य विशुद्ध एक्टिविस्ट होने के साथ ही स्मार्ट, भद्र, सुशिक्षित, विनम्र और सहज-सुलभ हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वे दूध के धुले हैं या उनमें कोई भी खामी नहीं है।

टीम अन्ना की अपनी सीमाएं हैं और उनकी कार्यपद्धति भी कुछ ऐसी है कि उसके कारगर साबित होने की गुंजाइश कम हो जाती है। मिसाल के तौर पर संसद में लोकपाल बिल पर बहस जारी रहने के दौरान ही उन्होंने अनशन करने का निर्णय ले लिया। इस पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद यूपीए को अन्ना के आंदोलन को एक अलग दृष्टिकोण से देखना चाहिए।

कुछ संभावनाओं के बारे में संभवत: यूपीए ने गंभीरता से विचार नहीं किया है। कल्पना करें कि यूपीए अन्ना के आंदोलन को पूरी तरह से समाप्त करने में सफल हो जाता है। तब क्या होगा? मुमकिन है कि यूपीए अपनी इस कामयाबी का जश्न मनाए, लेकिन जनता के मन में पैठा गुस्सा और असहायता की भावना इससे खत्म नहीं हो जाएगी। यह सच है कि पूरे देश की जनता अन्ना के साथ नहीं है, लेकिन इसके बावजूद अन्ना के लाखों समर्थक हैं।

वे देश के किसी भी कोने में जाकर महत्वपूर्ण हस्तक्षेप कर सकते हैं। यह भी मुमकिन है कि अन्ना के बाद ऐसे नेता भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए उठ खड़े हों, जो उनकी तरह शालीन नहीं हों और गांधीवादी आदर्शो में विश्वास नहीं करते हों। उनके द्वारा भ्रष्ट नेताओं के विरुद्ध अलोकतांत्रिक तौर-तरीके अख्तियार करने की आशंकाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में क्या होगा? गंभीर बुद्धिजीवी टीवी पर उनकी निंदा करेंगे, लेकिन बहुत संभव है कि इस तरह के नेताओं को जनता का समर्थन मिले। लेकिन क्या वह देश के लिए अराजकता की स्थिति नहीं होगी?

जहां ये सारी बातें फिलहाल दूर की कौड़ी लग सकती हैं, वहीं यह भी याद रखा जाना चाहिए कि कुछ साल पहले तक अन्ना के आंदोलन जैसी किसी घटना को भी दूर की कौड़ी ही माना जाता। एक भ्रष्टाचार विरोधी अलोकतांत्रिक आंदोलन के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता और राजनेताओं को इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यह न उनके लिए अच्छा होगा, न देश के लिए। कल्पना करें, यदि किसी अतिवादी संगठन ने अपनी सार्वजनिक छवि सुधारने के लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया, तो क्या उसे भी जनता के एक वर्ग में लोकप्रियता नहीं मिलेगी? क्या उसे एक हद तक जनसमर्थन नहीं मिलेगा?

निश्चित ही यह देश के लिए खतरा होगा, लेकिन इससे तात्कालिक नुकसान तो हमारे राजनेताओं को ही होगा। देशवासी भ्रष्टाचार ही नहीं, बल्कि महंगाई, खराब बुनियादी ढांचा, शिक्षा की चिंतनीय स्थिति और नौकरियों का अभाव जैसी समस्याओं से भी जूझ रहे हैं। आने वाले दिनों में जनता के असंतोष में इजाफा ही होना है। ऐसे में कोई भी धूर्त नेता जनता के असंतोष का फायदा उठा सकता है।

लिहाजा अन्ना का मखौल उड़ाने या उन पर छींटाकशी करने से कुछ नहीं होगा। देश के राजनेताओं को तो अन्ना का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी जनभावनाओं का नेतृत्व अहिंसक, मर्यादित और शांतिपूर्ण ढंग से किया। अगर अन्ना का आंदोलन नाकाम हो गया तो जनता से ज्यादा नुकसान हमारे राजनेताओं का होगा। -लेखक : चेतन भगत, अंग्रेजी के प्रसिद्ध युवा उपन्यासकार हैं। (लेख : From :  दैनिक भास्कर)

गुजरात के दंगे और नरेंद्र मोदी


क्या गुजरात वाकई वर्ष 2002 में हुई नृशंस हिंसा से आगे बढ़ चुका है? इसका जवाब इस पर निर्भर करेगा कि सवाल किससे पूछा गया है। उदाहरण के तौर पर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि गुजरात इतना आगे बढ़ चुका है कि अब अतीत के सवालों का सामना करने की भी जरूरत नहीं। फरवरी 2002 तक नरेंद्र मोदी एक लो-प्रोफाइल संघ प्रचारक से मुख्यमंत्री बने ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें इससे पहले किसी तरह का कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था।
दंगों ने उनकी छवि बदल दी। उन्हें हिंदुत्व के संरक्षक के रूप में देखा जाने लगा। उन्होंने एक ‘गुजरात गौरव यात्रा’ भी निकाली, हालांकि यह समझ पाना कठिन था कि दंगों में मारे गए एक हजार लोगों की रक्षा न कर पाने में कौन-सा गौरव था। आज एक दशक बाद मोदी ‘सद्भावना’ यात्रा का आयोजन कर रहे हैं, उन्हें अगले आम चुनाव में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताया जा रहा है और उन्होंने सुप्रशासन से एक मुख्यमंत्री के रूप में अपनी एक ठोस छवि बनाई है।
आज अगर गुजरात के उन इलाकों से गुजरें, जो 2002 में दंगाग्रस्त थे, तो फौरी तौर पर तो यही लगता है कि वह साल अब एक दूरस्थ स्मृति बन चुका है। पंचमहल जिले के हालोल में जहां दर्जनों मकान जला दिए गए थे और नरसंहार हुआ था, वहां आज जनरल मोटर्स का कारखाना खड़ा है, जो कि स्पेशल इक
ोनॉमिक जोन का एक हिस्सा है और साथ ही मोदी के ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का एक समर्थ प्रतीक भी। गोधरा, जहां एस-6 कंपार्टमेंट को फूंक दिया गया था, में आज हिंदू और मुस्लिम व्यापारी मिल-जुलकर काम कर रहे हैं और गुजरात की उद्यमशीलता की संस्कृति को प्रदर्शित कर रहे हैं। वडोदरा में एक क्रिकेट कैम्प चल रहा है। यह जगह बेस्ट बेकरी से ज्यादा दूर नहीं है, जहां कुख्यात हत्याकांड हुआ था। लेकिन यहां के युवा मुस्लिम आज अगला इरफान पठान बनने का सपना देखते हैं।
अहमदाबाद की हवाओं में आशावाद की निश्चित गंध है। हाल ही में हुए सर्वेक्षणों में अहमदाबाद को भारत की सर्वाधिक ‘लिवेबल सिटी’ बताया गया है। अहमदाबाद बस रैपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम शहरी परिवहन के लिए एक अनुकरणीय मानक स्थापित करता है, जबकि शहर का हवाई अड्डा नई सज्जा से दमक रहा है।
यह शहर इससे पहले कभी इतना साफ-सुथरा नजर नहीं आता था। साबरमती नदी के किनारे बसी झुग्गी-झोपड़ियों को इतनी सफाई से हटा दिया गया है, जैसा केवल चीन में ही संभव हो पाता। शॉपिंग मॉल्स लोगों से पटे पड़े हैं और होटलें खचाखच भरी हैं।
अमिताभ बच्चन के हाई प्रोफाइल गुजरात टूरिज्म प्रमोशन के कारण पर्यटन उद्योग में 40 फीसदी का बूम आया है और कॉपरेरेट घराने गुजरात के विकास रथ की सवारी करने को लालायित हैं। एक बिजनेस आउटसोर्सिग सेंटर पर युवा पेशेवर जोर देकर कहते हैं कि गुजरात में अब कभी २क्क्२ जैसी घटना नहीं होगी। उनसे पूछो कि उनका रोल मॉडल कौन है और आपको पता चल जाएगा कि क्यों नरेंद्र मोदी को इसी साल होने वाले विधानसभा चुनावों में एक बार फिर स्पष्ट विजेता के रूप में देखा जा रहा है।
लेकिन इसके बावजूद, यदि चमक-दमक से जरा हटकर सोचें तो हम पाएंगे कि ‘क्या गुजरात वाकई आगे बढ़ा है?’ जैसे सवाल को एक नया आयाम मिल गया है। गोधरा की सिगनल फालिया बस्ती, जहां ट्रेन जलाए जाने की घटना के अधिकांश आरोपी रहते थे, के नौजवान मुझे बताते हैं कि वे बेरोजगार हैं, क्योंकि कोई भी सिगनल फालिया में रहने वाले मुस्लिम युवकों को नौकरी नहीं देना चाहता। अहमदाबाद के शाहपुर की भीड़भरी गलियों, जहां पिछले एक दशक से हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई की तरह रह रहे हैं, में इस भाईचारे के पीछे छिपे जेहनी भय को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
आज भी यहां एक मामूली-सी वारदात के बाद छोटे-मोटे दंगे की स्थिति निर्मित हो सकती है। जो लोग सक्षम थे, वे यहां से पलायन कर गए। अहमदाबाद भीमकाय महानगर है, लेकिन इसके बावजूद यहां मिली-जुली बस्तियां कम ही हैं। मुस्लिमों का हिंदुओं और हिंदुओं का मुस्लिमों की बस्तियों में स्वागत नहीं किया जाता और इन दोनों समुदायों के बीच वैवाहिक संबंधों के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता।
अहमदाबाद के उपनगर नरोदा पटिया, जहां दंगों में 95 लोग मारे गए थे, में दंगा पीड़ित परिवार आज भी न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अभी तक हत्याओं के लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है और दंगों के कथित जिम्मेदार आज भी क्षेत्र में खुलेआम घूमते हैं। पक्षपात और पूर्वग्रहों के अंदेशे में न्याय की अवधारणा भ्रामक लगने लगती है।
‘फिर भी हम संघर्ष करेंगे’ बित्ते भर की एक महिला मुझसे कहती है। दंगों में इस महिला के परिवार के आठ सदस्य मारे गए थे और अब वह नरोदा केस की मुख्य गवाह है। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि संकट की घड़ी में किस तरह साधारण लोगों में असाधारण साहस आ जाता है।
सिटीजन नगर के रहवासी शहर के सबसे बड़े कूड़ेगाह के करीब बसे हैं। दंगापीड़ितों के पुनर्वास के लिए अहमदाबाद के सरहदी इलाकों में यह बस्ती बसाई गई थी। यहां गुजरात ‘वाइब्रेंट’ नहीं है। यहां की धूल-गंदगी की तुलना में मुंबई की झुग्गियां भी आलीशान मालूम होती हैं। लगता है जैसे इस इलाके की गुजरात के नक्शे पर कोई जगह नहीं। यहां कोई स्कूल नहीं हैं, अस्पताल नहीं हैं, साफ-सफाई नहीं है। एक महिला कहती है : ‘हम सिटीजन नगर में भले रह रहे हों, लेकिन हम सेकंड क्लास सिटीजन हैं।’
इन मायनों में समृद्ध गुजरात और वंचित गुजरात के बीच बढ़ती खाई वास्तव में चिंताजनक है। इस खाई को पाटने के लिए मोदी ने विकास मंत्र पर ध्यान केंद्रित किया है। दहाई के अंक वाली विकास दर को बीते वक्त के जख्मों का एकमात्र मरहम माना जा रहा है, लेकिन मानवीय दृष्टिकोण के बिना महज उच्च विकास दर से सामुदायिक सौहार्द नहीं अर्जित किया जा सकता। गुजरात के महानतम व्यक्ति महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में मेरी भेंट दारा और रूपा मोदी से हुई।
इस पारसी दंपती का बेटा गुलबर्ग सोसायटी नरसंहार में मारा गया था। उनके बेटे का शव कभी नहीं मिला। लेकिन पिछले एक दशक में कोई भी आला ओहदेदार इस दंपती के आंसू पोंछने नहीं पहुंचा। लगभग हर दंगा पीड़ित की यही कहानी है।
गांधीजी कहते थे सद्भावना का अर्थ है मजहबी दायरों से ऊपर उठते हुए मनुष्य के प्रति उदारता-करुणा की भावना। 2002 की नृशंसताओं को वास्तव में पीछे छोड़ देने के लिए गुजरात को इसी भावना की जरूरत है।

-लेखक: राजदीप सरदेसाई, आईबीएन 18 नेटवर्क के एडिटर-इन-चीफ हैं।
(लेख From :  दैनिक भास्कर)

होली के रंग अबीर-गुलाल के ही संग

दैनिक भास्कर समूह के आह्वान पर इस वर्ष भी देशभर के करोड़ों पाठकों ने सूखी होली खेलने का संकल्प लिया है। पिछले तीन वर्षो से जारी तिलक होली अभियान के साथ संकल्पित होने वालों की संख्या लगातार बढ़ती गई है। यह जल संरक्षण की दिशा में शुभ संकेत है।
इस वर्ष हालांकि मानसून की अच्छी वर्षा से जलसंकट के हालात नहीं है। लेकिन पानी को बचाना और उसके दुरुपयोग को रोकना हमारा कर्तव्य और समय की जरूरत है। इसीलिए इस बार भास्कर ने सूखी होली का आग्रह नए सिरे से दोहराया है। हमने अपने पाठकों से अनुरोध किया कि आने वाली पीढ़ियों के लिए पानी बचाने की कोशिश लगातार जारी रखें। होली पर इसका सबसे बेहतर उपाय यह है कि हम अबीर गुलाल से यह पर्व मनाएं। होली तो पूरे जोश, उमंग, उल्लास और परंपरा के साथ मने मगर पानी की हर बूंद ही हिफाजत के पवित्र भाव से।
सूखी होली के दो फायदे स्पष्ट हैं। पहला बड़े पैमाने पर पानी की बचत और दूसरा गीले रंगों के घातक रसायनों से त्वचा को होने वाले नुकसान से बचाव। संतोष की बात है कि भास्कर समूह के इस आह्वान का असर व्यापक हुआ है। संवेदनशील युवा वर्ग देश भर में इससे जुड़ा है। सभी एक मत से इस पर सहमत हैं कि पानी का सदुपयोग हो और पर्व के नाम पर उसकी फिजूलखर्ची न हो। इस वर्ष एक मार्च से देश के विभिन्न हिस्सों में इस अभियान में आम लोगों भागीदारी उत्साहजनक रही।
सामूहिक संकल्प लिए गए, रैलियां निकलीं, पर्चे बंटे। जल संरक्षण के अभियान की सार्थकता समाज के हर वर्ग ने स्वीकार की। गुजरात के वड़ोदरा में स्वामी नारायण संप्रदाय के २५ हजार अनुयायियों ने अबीर-गुलाल से होली का संकल्प दोहराया, छाीसगढ़ के बिलासपुर में खाटू श्याम के सैकड़ों समर्पित भक्तों ने सूखी होली पर हामी भरी।
राजस्थान के जयपुर से लेकर सिरोही तक और पंजाब, हरियाणा के बड़े-छोटे शहरों में दर्जनों संगठनों ने इस अभियान को वक्तकी जरूरत माना। मध्यप्रदेश के उज्जन में एमआईटी के पांच हजार बच्चों ने एसएमएस के जरिए सूखी होली का संदेश प्रसारित किया तो छोटे से शहर खंडवा में मानव श्रंखला बनाई गई। झारखंड सरकार ने अभियान को समर्थन दिया।
महिला हॉकी टीम के सदस्य भी इसमें शामिल हुए। देश के विभिन्न वर्गो के प्रमुखों, खिलाड़ियों, कलाकारों और कथा-प्रवचनकारों सहित विज्ञान, राजनीति, समाज से जुड़े लोगों ने भी अबीर-गुलाल के साथ सूखी होली के नारे को अपना स्वर दिया है। यह सारी कोशिश आज होली के दिन इस संकल्प को साकार करने की है। विश्वास है कि हमेशा की तरह आपका प्यार, समर्थन मिलता रहेगा। होली की शुभकामनाओं के साथ..आपका ही - रमेशचंद्र अग्रवाल चेयरमैन, दैनिक भास्कर समूह।

जाने कैसे और क्यों बनता है भारतीय आम बजट

बजट बनता कैसे है?
भारत में अगर सबसे गोपनीय कोई सार्वजनिक चीज है तो बजट है। बजट भाषण में कही गई बातें या बजट में पेश किए जा रहे प्रस्तावों को बेहद गोपनीय माना जाता है और उन्हें ठीक उसी तरह ढका छिपाकर, संभालकर रखा जाता है जैसे हर आदमी अपने घर में सोने को रखता है। दिल्ली का नॉर्थ ब्लॉक यानी वित्त मंत्री का दफ्तर सरकार के लिए तिजोरी की तरह है और बजट आने से कुछ दिन पहले से तो इस तिजोरी की सुरक्षा इतनी कड़ी कर दी जाती है कि परिंदा भी वहां पर नहीं मार सकता।

कितनी सुरक्षा बजट की सुरक्षा के लिए सरकार कितनी सचेत है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2006 से भारत की जासूसी एजेंसी आईबी के एजेंट की इसकी निगरानी करते हैं। वे लोग दफ्तर के, बजट के लिए काम कर रहे लोगों के घरों और मोबाइल फोनों को टैप करते हैं। बजट तैयार करने में लगभग एक दर्जन लोग काम करते हैं और वे लोग कहां जा रहे हैं, किससे मिल रहे हैं, क्या कर रहे हैं, हर बात पर आईबी की नजर रहती है।

भारत के वित्त सचिव तक की निगरानी की जाती है जो इस वक्त अशोक चावला हैं। बजट से पहले वित्त सचिव को जेड सिक्योरिटी उपलब्ध कराई जाती है और आईबी नजर रखती है कि उनके आसपास क्या हो रहा है।

ईमेल तक नहीं भेज सकते
इलेक्ट्रॉनिक युग में मुश्किलें बढ़ गई हैं क्योंकि अब हर काम कंप्यूटरों के जरिए होता है। इसलिए कई बार तो बजट से पहले वित्त मंत्रालय से ईमेल भेजने तक की सुविधा भी छीन ली जाती है।

छपाई से पहले और उसके बाद
बजट तैयार हो जाने के बाद उसे छपाई के लिए जाना होता है। यह बात सार्वजनिक नहीं की जाती कि बजट भाषण की छपाई कब होती है। माना जाता है कि बजट पेश होने से 1 या 2 दिन पहले ही इस छपाई के लिए प्रेस में भेजा जाता है. लेकिन यह कोई सामान्य सरकारी प्रेस नहीं है।

केंद्रीय बजट की छपाई एक विशेष प्रेस में होती है जो नॉर्थ ब्लॉक यानी सबसे सुरक्षित जगह पर मौजूद है। बेसमेंट में बनाई गई यह विशेष प्रेस आधुनिक है। जहां सारी सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं।

बजट के छपाई के लिए जाने से लेकर बजट भाषण के पढ़े जाने तक इसे तैयार करने वाले अधिकारी लगभग कैद में रहते हैं। उनके लिए बाहर से ही खाना जाता है और शायद तब तक वे किसी से बात भी नहीं करते।

कई मंत्रालयों का काम
बजट तैयार करना सिर्फ वित्त मंत्रालय का काम नहीं है। इसके लिए कम से कम 5 और मंत्रालयों के अधिकारी और अलग अलग क्षेत्र के विशेषज्ञ वित्त मंत्रालय के अधिकारियों की मदद करते हैं। मसलन कानून के जानकार पूरे बजट को पढ़ते हैं और बताते हैं कि कहीं एक भी शब्द संविधान के बाहर तो नहीं है। यह काम कानून मंत्रालय का होता है। इसीलिए वित्त मंत्री जब बजट भाषण पढ़ने संसद में जाते हैं तो अपना मरून रंग का ब्रीफकेस फोटोग्राफरों को दिखाते हैं। उस ब्रीफकेस की अहमियत यही है कि उसके अंदर देश का सबसे गोपनीय दस्तावेज बंद होता है।

इतनी गोपनीयता क्यों
भारत में कई सालों से यह बहस चल रही है कि बजट के लिए जिस तरह की गोपनीयता बरती जाती है वह फिजूल है और उससे बाजार में सिर्फ डर पैदा होता है। जब प्रशासन में पारदर्शिता की बात की जा रही है तो इस तरह की गोपनीयता बरतना अंतर्विरोध है। ऐसा इसलिए भी है कि कई देशों में बजट ऐसा गोपनीय मुद्दा नहीं है जैसा भारत में है। मसलन अमेरिका में तो राष्ट्रपति लोगों का समर्थन जुटाने के लिए अक्सर सार्वजनिक रूप से बताते हैं कि वह बजट में क्या करना चाहते हैं।

बजट की गोपनीयता के समर्थक कहते हैं कि बजट के बारे में पहले जान जाने से जमाखोरों और कर चोरों को मदद मिलती है। लेकिन जाने माने अर्थशास्त्री स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर सालों पहले से इसका विरोध कर रहे हैं। एक लेख में उन्होंने लिखा था कि यह भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की देन है जिसे फौरन खत्म कर दिया जाना चाहिए।

विभिन्न देशों में सालाना बजट को बड़े खुलासे करने वाले अहम मौके के तौर पर नहीं देखा जाता। इसे सरकारें सालभर का लेखा जोखा पेश करने और यह बताने के लिए इस्तेमाल करती हैं कि अगले साल कहां कहां वह किस तरह खर्च करना चाहती है। लेकिन कब क्या और कहां खर्च करना है इसका फैसला साल के किसी भी वक्त हो सकता है। भारत में पिछले दो तीन साल में ऐसा होने भी लगा है।
- लेख From :  दैनिक भास्कर

आमदनी अठन्नी और उधार करोड़ों का

दैनिक भास्कर प्री बजट सीरीज :-पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लचर प्रदर्शन के बाद अब नजरें टिकी हैं 16 मार्च के वित्त मंत्री के भाषण पर। यूपीए सरकार की तरह देश की आर्थिक स्थिति भी दबाव में है। ऐसे में प्रणबदा क्या रास्ता लेते हैं - 2014 की खातिर वोट जुटाने के लिए लोक लुभावन बजट निकालते हैं या चरमराती अर्थव्यवस्था दुरुस्त करने के उपाय करते हैं। बजट के दिन चर्चा सिर्फ करों पर होती है। आम आदमी या नौकरीपेशा लोगों - जो करदाता हैं - के लिए यह समझना जरूरी है कि सरकार कभी करों को कम क्यों नहीं करती। क्यों कीमतें आमदनी के मुकाबले ज्यादा तेजी से भाग रही हैं? आर्थिक तेजी के बिना नौकरीशुदा या कारोबारियों की आय क्यों नहीं बढ़ती? इसलिए यह जानना जरूरी है कि सरकार आपका पैसा कहां और कैसे खर्च कर रही है, क्या इससे आपका कल बेहतर होगा? इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने के लिए हम सीरीज शुरू कर रहे हैं। पहली कड़ी में हम समझा रहे हैं कि सरकार की आमदनी और उधारी पर किस तरह बजट प्रबंधन निर्भर करता है।
सरकार के खाते सिर्फ आय से नहीं चलते। सरकार के पास जब पैसे की कमी होती है तब वह या तो और पैसा छाप सकती है या उधार ले सकती है। जब सरकार ज्यादा पैसे छापती है तो अर्थव्यवस्था में तरलता आती है और हर चीज के दाम बढ़ते हैं। इसलिए सरकार आय और व्यय की खाई को उधारी से पाटती है। थोड़ा बहुत हो तो ठीक है, मगर सरकार पूरी तरह से उधार पर निर्भर हो जाए तो किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए यह अच्छा नहीं है।

यूपीए सरकार ने 2008 से खर्च पर अंकुश लगाना बंद कर दिया है। 2008 की वैश्विक मंदी के दौरान सरकार ने तय किया कि अर्थव्यवस्था को बूस्ट की जरूरत है। ऋण माफ किए गए, ग्रामीण अर्थव्यव-स्था में आय बढ़ाने के लिए मनरेगा जैसे कार्यक्रम को बढ़ाया गया। एक्साइज ड्यूटी पर कैप लगाया गया ताकि उद्योग को बढ़ावा दिया जा सके। इस दौरान सरकार ने उधार लेकर खर्च करना और गरीबों के नाम पर खर्च बढ़ाना एक उद्देश्य बना लिया। इसका असर अब सरकार के बजट पर हावी हो गया है। पिछले साल यानी 2011-12 के बजट में सरकार का सबसे बड़ा खर्च किसी सब्सिडी, विकास कार्य या इन्फ्रास्ट्रक्चर पर नहीं, बल्कि ब्याज के भुगतान पर हुआ। सरकार ने इस मद में 2.68 लाख करोड़ रुपये का अनुमान लगाया था। तोड़ें तो यह आंकड़ा आता है 2,67,986,00,000,00 जो सिर्फ ब्याज में जाएगा। यह अनुमान इस बात पर निर्भर था कि अर्थव्यवस्था 8 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी और टैक्स वसूली में तेजी रहेगी। मगर पिछले छ: महीने में अर्थव्यवस्था हिल गई है।

कर राजस्व लगातार नीचे आ रहा है। जनवरी तक सिर्फ 4.58 लाख करोड़ रुपये का कर संग्रह हुआ जो पूरे वित्त वर्ष के अनुमान से 2.06 लाख करोड़ कम है। यह कमी सरकार ने कर्ज लेकर पूरी की है।
गैर-कर राजस्व भी करीब 35,000 करोड़ कम रहने का अनुमान है।उधार बढ़ रहा है। इसका असर विकास पर भी पड़ता है, क्योंकि जब सरकार खुद लगातार इतना कर्ज उठा रही है तो निजी क्षेत्र अपने निवेश के लिए कहां से कर्ज लेगा। सरकार जब कर्ज लेती है, बैंक और नॉन बैंकिंग कंपनियां सरकारी ट्रेजरी बिल में निवेश करती हैं। यह निवेश रिस्क-फ्री माना जाता है, जबकि कंपनी को उधार देने में जोखिम होता है। ब्याज दरें वैसे ही रिकॉर्ड स्तर पर हैं। इस माहौल में अगर सरकार निजी कंपनियों से ऋण के लिए स्पर्धा करे तो निजी क्षेत्र में निवेश नहीं होगा। अभी ऐसा ही हो रहा है। सरकार की जरूरत को देखते हुए उसके लिए भी ब्याज दरें लगातार बढ़ रही हैं। निजी क्षेत्र निवेश नहीं कर पा रहा क्योंकि उसे कर्ज आसानी से और सस्ती दर पर नहीं मिल रहा।
मगर सरकार का खर्च संपत्ति या कैपेसिटी बिल्डिंग में नहीं हो रहा है। इसलिए यह निश्चित है कि आगे जाकर अर्थव्यवस्था को कोई खास फायदा नहीं होगा। यह उसी तरह है जैसे कोई उधार लेकर सिर्फ अपने रोज के खर्चे में उसे व्यय करता हो। समझदार व्यक्ति अगर उधार लेता है तो उसे घर बनाने या कोई धंधा शुरू करने में करता है। जो उधार से आय का स्रोत शुरू करते हैं वही उधार चुका पाते हैं। जो नहीं कमाते वह उधारी के चक्र में फंस जाते हैं। देश भी जब ऐसे चक्र में फंसते हैं तो दिवालिया हो जाते हैं। ग्रीस का उदाहरण हमारे सामने है। अगली कड़ी में पढ़ेंगे कि क्या सरकार सही जगह पर सही तरह से खर्च कर रही है?
- लेख From :  दैनिक भास्कर

गरीबों के नाम पर 40 हजार करोड़ रुपए बर्बाद

सरकार का सबसे ज्यादा खर्च गांव और गरीबों के नाम पर चलाई जाने वाली योजनाओं पर होता है। इन योजनाओं में सबसे बड़ी योजना है मनरेगा। मनरेगा की असलियत क्या है यह जानना जरूरी है क्योंकि खर्च सरकार का है, पर पैसा तो आपका है। मनरेगा का उद्देश्य एक साल में कम से कम 100 दिन रोजगार देना था। यह 40 हजार करोड़ रुपए की योजना है। और सरकारी आकड़ों के मुताबिक सिर्फ 55 प्रतिशत हकदार तक पहुंचता है। यानी कि 16 से 17 हजार करोड़ रुपए का इस योजना में बंदरबांट हो जाता है। मगर शायद बाकी पैसा भी असल गरीब तक नहीं पहुंचता और सरपंच और बीडीओ के स्तर पर ही खा लिया जाता है।
 इतना पैसा आने की वजह से गांव की पंचायतें भी बदल रही हैं। अब से पहले सरपंच ज्यादातर आपसी सहमति से तय हो जाते थे। मगर मनरेगा और ऐसी कई योजनाओं के चलते अब हजारों- लाखों रुपए खर्च होते है पंचायत चुनावों में। सरपंचों को आज से पहले मोटरसायकिल में पेट्रोल डालने के पैसे नहीं थे अब वे बड़ी गाडिय़ों में घूम रहे है। बीडीओ तो स्कॉर्पियो-इनोवा के नीचे नहीं चलते। मनरेगा में इतनी चोरी इसलिए है क्योंकि न तो कोई परियोजना दिखानी होती है और न ही उसे पूरा करना होता है। बस पैसा बांटना होता है। जैसे कि भीख बांटी जाती है। कहने के लिए रोजगार दिया जा रहा है, न तो काम की कोई अपेक्षा होती है, न परियोजना की पूर्णता होती है और न ही उसका कोई लेखा-परीक्षण। जब देनेवाले को कुछ दिखाना नहीं, लेने वाले को मुफ्त में पैसा मिल रहा है तो चोरी क्यों नहीं होगी? मगर ऐसे खर्चे से न तो कोई परिसंपत्ति बनती है ना भविष्य में कोई रोजगार पैदा होता है। पर मजदूर को घर पर बैठने की आदत जरूर पड़ जाती है।
लगातार आलोचना के बाद योजना आयोग सदस्य मिहिर शाह ने पिछले हफ्ते मनरेगा को नया रूप दिया। शाह की रिपोर्ट के मुताबिक मनरेगा की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि इसने मजदूरों का पलायन रोक दिया है। यह सच है मजदूरों ने गांव छोड़कर बाहर जाना बंद कर दिया है। क्योंकि जब बिना मजदूरी किए घर में पैसा मिले तो बाहर काम ढूंढऩे की क्या जरूरत? इसका सीधा असर पड़ा है पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, गुजरात और मध्यप्रदेश में जहां अब कटाई और बुवाई के लिए मजदूर नहीं मिल रहे। यही नहीं छोटे कारोबारियों पर भी इसकी मार पड़ रही है। उनके कारखाने बंद हैं और कारोबार ठप हो रहे हैं मजदूरों की किल्लत से। यानी कारोबार जो रोजगार देते थे या एक श्रमिक को कारीगर में बदलते थे वो अब नहीं हो रहा।
छोटे कारोबार देश में रोजगार का सबसे बड़ा जरिया है, इनका बंद होना चिंता का विषय है न सिर्फ रोजगार के लिए पर विकास के लिए भी। मिहिर शाह की दूसरी दलील है कि मनरेगा के व्यय की वजह से ही 2008 से लेकर आज तक उद्योग जगत के उत्पादों की मांग बढ़ी है। मांग जरूर बढ़ी है मोबाइल फोन के लिए, डीवीडी प्लेयर्स के लिए, यहां तक मोटरसायकिल और कार के लिए भी। मगर इस तरह की मांग सस्टेनिबल (टिकाऊ) नहीं है और ना ही किसी उद्योग को इस पर ज्यादा निर्भर रहना चाहिए। नए मनरेगा में सरकार ने पैसा बांटने का अपना उद्देश्य और साफ कर दिया।
नए मनरेगा के मुताबिक नया नारा है - "काम मांगेंगे तब मिलेगा"। पूरी योजना में परियोजना को उनके पूरा होने को कोई तवज्जो नहीं दी गई है। शायद सरकार का यह मानना है कि पैसे बांटने से 2014 के चुनाव में वोट मिलेंगे। छोटे उद्योगों के बंद होने से चीन को फायदा होगा। राजस्थान, पंजाब, गुजरात और हरियाणा में किसानों को मजदूर न मिलना खेती की लागत बढ़ाएगा और खाद्यान्न की कीमतें बढ़ाएगा। अगर यह 40,000 करोड़ रुपए बांटने की जगह समझदारी से उपयोगी और मजदूरों की कार्यकुशलता बढ़ाने में किया जाता तो गरीब खैरात पर ही निर्भर नहीं रहते, बल्कि अंतत: अर्थव्यवस्था को भी तेजी मिलती।

लेख From :  दैनिक भास्कर

खूबसूरत लड़कियों के जाल से फंस जाते हैं क्रिकेटर

भारत और पाकिस्‍तान के बीच हुए वर्ल्‍ड कप सेमीफाइनल मुकाबले में फिक्सिंग के गंभीर आरोपों का मुद्दा गरमाता जा रहा है। 'संडे टाइम्‍स' की रिपोर्ट में कहा गया है कि सट्टेबाजों ने इंग्लैंड जैसे देशों के खिलाड़ियों और बॉलीवुड हीरोइन को भी फिक्सिंग के काम में लगा रखा है। अखबार की जांच में पता चला है कि चार खिलाड़ी बॉलीवुड की हीरोइनों के जाल में फंस गए हैं।

रिपोर्ट में दिल्‍ली के एक सटोरिये विकी सेठ के हवाले से कहा गया है, ‘खूबसूरत लड़कियों के जाल में क्रिकेटर आसानी से फंस जाते हैं जो उन्‍हें सटोरियों के लिए काम करने के लिए राजी कर लेती हैं।’ सेठ ने माना है, 'काउंटी क्रिकेट फिक्सिंग और सट्टेबाजी का अच्छा बाज़ार है क्योंकि ये लो प्रोफाइल के मैच होते हैं और इन पर कोई नज़र नहीं रखता है। यही वजह है कि काउंटी क्रिकेट में सट्टेबाजी के जरिए बिना किसी परेशानी के अच्छा पैसा बनाया जा सकता है।'
हालांकि इस बीच न्‍यूजीलैंड क्रिकेट ने सफाई दी है। बोर्ड ने फिक्सिंग के आरोपों को बेबुनियाद करार दिया है। बोर्ड के चीफ एक्‍जीक्‍यूटिव डेविड ह्वाइट ने ‘संडे टाइम्‍स’ में छपी खबर पर कहा कि सूत्र भरोसे के लायक नहीं हैं और इस आरोप में तथ्‍यों की कमी है। उन्‍होंने यह भी साफ किया है कि न्‍यूजीलैंड के क्रिकेटर किसी तरह के फिक्सिंग में शामिल नहीं रहे हैं।


अखबार ने फिक्सिंग के मामलों की जानकारी आईसीसी को देने का दावा किया है। अखबार ने आईसीसी के हवाले से बयान भी छापा है, जिसमें क्रिकेट परिषद ने कहा है, 'आपने जो जानकारी उपलब्ध करवाई है, उसके आधार पर हम इन गंभीर आरोपों पर जांच करवाएंगे।'
सेमीफाइनल में क्या हुआ था : भारत ने टॉस जीतकर पहले बल्लेबाजी करते हुए 50 ओवरों में 9 विकेट खोकर 260 रन बनाए थे। इसके जवाब में पाकिस्तान की पूरी टीम 49.5 ओवरों में 231 रनों पर आउट हो गई थी। इस तरह भारत ने मैच जीतकर विश्व कप के फाइनल में जगह बनाई थी। इस मैच में सचिन ने 85 रन बनाए थे, लेकिन पाकिस्तानी क्रिकेटरों ने 4 बार उनका कैच छोड़ा था। सेमीफाइनल मैच से पहले पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक ने अपनी टीम को मैच फिक्सिंग से दूर रहने को कहा था।

निंबालकर हत्याकांडः मुंबई में सुनवाई कराने की मांग

मुंबई. कांग्रेस नेता निंबालकर हत्याकांड में कई गवाहों के मुकरने से चिंतित परिजनों ने बांबे हाईकोर्ट से मामले की सुनवाई अलीबाग से मुंबई स्थानांतरित करने की मांग की है। वर्ष 2006 में हुई कांग्रेस नेता पवनराज निंबालकर की हत्या की सुनवाई अलीबाग सत्र अदालत में चल रही है। उस्मानाबाद से राकांपा सांसद पद्मसिंह पाटील इस मामले में मुख्य आरोपी हैं।

पवनराज निंबालकर की पत्नी आनंदीबाई निंबालकर ने बांबे हाईकोर्ट में आवेदन कर मामले की सुनवाई पर रोक लगाने की भी मांग की है। इससे पहले, मामले की जांच कर रही सीबीआई ने हाईकोर्ट में एक हलफनामा दाखिल कर आरोप लगाया है कि पद्मसिंह मामले के गवाहों पर दबाव डालने के लिए अपने प्रभाव का उपयोग कर रहे हैं। सीबीआई ने अपनी याचिका के साथ दाखिल हलफनामे में पाटील को सत्र अदालत द्वारा दी गई जमानत रद्द करने की मांग की है। हलफनामे के अनुसार, मामले के छह गवाह अदालत में सुनवाई के दौरान मुकर चुके हैं।

जाच एजेंसी के पुलिस उपाधीक्षक समर राणा द्वारा दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि गवाह सीबीआई के सामने पहले दिए गए बयानों से, प्रतिवादी (पाटील) द्वारा डाले जा रहे दबाव के चलते मुकर चुके हैं। हलफनामे के अनुसार, पाटील उस्मानाबाद लोकसभा सीट से सांसद हैं और खासा प्रभाव रखते हैं।

आनंदीबाई ने हलफनामे में कहा है कि हलफनामा दाखिल किए जाने के बाद तीन और गवाह मुकर गए। आज की तारीख तक कुल 34 में से नौ गवाह आरोपी के खिलाफ गवाही देने से इनकार कर चुके हैं। और उन्हें मुकरा हुआ घोषित कर दिया गया है। इसमें यह भी आरोप लगाया गया है कि अपराध जगत के सरगनाओं से जुड़े कुछ प्रभावी राजनीतिज्ञ गवाहों को भयभीत कर रहे हैं। मुख्य आरोपी पद्मसिंह पाटील का गहरा राजनीतिक प्रभाव है। गवाहों को लगातार धमकाया जा रहा है कि अगर उन्होंने अदालत में गवाही देने की जुर्रत की तो उनका हाल भी निंबालकर जैसा ही होगा। जून 2009 में गिरफ्तार पाटील को अलीबाग सत्र अदालत ने उसी साल सितंबर में जमानत दे दी थी। इसके बाद सीबीआई ने हाईकोर्ट में इस आदेश को चुनौती दी थी। मामले की सुनवाई गत वर्ष जुलाई में शुरू हुई और अभियोजन पक्ष अब तक 20 गवाहों से जिरह कर चुका है।

सीबीआई के अनुसार पाटील ने निंबालकर को मारने की साजिश रची थी, क्योंकि वह राजनीतिक परिदृश्य में उनके बढ़ते प्रभाव को अपने लिए खतरा मानते थे। उन्होंने निंबालकर को मारने के लिए 30 लाख रुपए की सुपारी दी थी। तीन जून 2006 को नवी मुंबई के कलम्बोली में निंबालकर और उनके ड्राइवर की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी।

बदले की आग: यूपी में सपाइयों ने फूंकी पूर्व मंत्री की फैक्‍ट्री

क्या उत्तर प्रदेश में जिसका डर था वही हो राह है। कहा जा रहा था कि सपा शासन आने से राज्य में गुंडाराज आएगा। पिछले दो दिनों में जिस तरह की घटनाएं हुईं हैं उनसे तो ऐसा ही लग रहा है कि राज्य में गुंडाराज शुरु हो गया है।

आगरा के नजदीक बाह में एक बसपा सरपंच के पति की हत्या हो गई। पीड़ित पक्ष का आरोप है कि सरपंच के पति की हत्या बसपा उम्मीदवार के लिए प्रचार करने के कारण की गई।

वहीं जिला अंबेडकर नगरमें बसपा सरकार में मंत्री रहे एक नेता की फैक्ट्री में आग लगाए जाने की खबर है। यहां भी आरोप समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं पर लगा है लेकिन इस मामले में अंबेडकरनगर के पुलिस अधीक्षक का कहना है कि होली पर शराब पीकर डीजे बजाने को लेकर दो पक्षों में झगड़ा हो गया। दोनों ही दलित समुदाय है के हैं और बसपा से संबंध रखते हैं।

उत्तर प्रदेश के बलिया में भी सपा कार्यकर्ताओं पर वोट न देने पर दलितों के घरों में आग लगाने का आरोप लगा है। बलिया के भोज छपरा गांव के दलित महिलाओं को मारपीट की घटना के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया है। महिलाओं का आरोप है कि वोट न देने से गुस्साए सपा कार्यकर्ताओं न सिर्फ इनके साथ मरापीट की बल्कि इनके घरों को भी आग के हवाले कर दिया। बलिया जिले की घटना में तीन महिलाएं और दो बच्चे घायल हो गए हैं।

वहीं जिला संतरविदास नगर के भदौही के एक गांव में उस दलित परिवार की झोपड़ी जला दी गई जिसने राहुल गांधी को खाना खिलाया था। इस घटना के लिए भी आरोप सपा कार्यकर्ताओं पर ही लगा है।

वहीं नए बने जिले पंचशीलनगर के गढ़मुक्तेश्वर से अंबेडकर प्रतिमा को नुकसान पहुंचाए जाने की भी खबर है। पंचशीलनगर के पुलिस अधीक्षक के मुताबिक अंबेडकर प्रतिमा का चश्मा क्षतिग्रस्त पाया गया जिसे सही करा दिया गया है। मामले की गंभीरता को देखते हुए अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर जांच शुरु कर दी गई है।

गौरतलब है कि बुधवार को सीतापुर के रउसा थाने के बम्भिया गांव में सपा कार्यकर्ताओं ने करीब दर्जन भर घरों में आग लगा दी। इस घटना में कई लोग घायल भी हुए हैं। सेवता सीट से सपा प्रत्याशी महेंद्र कुमार सिंह की जीत हुई है। आरोप है कि पीड़ित पक्ष ने निर्दलीय उम्मीदवार शिव कुमार गुप्ता को वोट दिया था। चुनाव नतीजों के बाद सपा समर्थकों ने वोट ने देने पर पीड़ित पक्ष के घरों में आग लगा दी।

हालांकि इस मामले में जिला पुलिस का कहना है कि घटना का चुनाव नतीजों से कुछ लेना देना नहीं है। दैनिक भास्कर डॉट काम से बातचीत में सीतापुर के अपर पुलिस अधीक्षक ने कहा कि बम्भिया गांव में बुधवार को हुई हिंसा के संबंध में दो लोगों को गिरफ्तार किया गया है। गिरफ्तार किए गए लोगों का कोई राजनीतिक संबंध नहीं है।

पुलिस अधीक्षक ने बताया कि गांव में ठाकुर समाज को कुछ लोगों ने चौहान सामज के कुछ परिवारों को अपनी जमीन में झोपड़ियां बनाने दी थीं। अब उन्होंने वो जगह खाली कराई तो विवाद हो गया। दो गुटों में पत्थरबाजी हुई जिसमें तीन लोग घायल हो गए। घायलों को अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

रउसा थाने के एसएचओ ने बताया कि जमीनी विवाद में हिंसा हुई है जिसे राजनीतिक रूप देने की कोशिश की जा रही है। एसएचओ के मुताबिक बुधवार को हुई घटना में दो लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है। गिरफ्तार किए गए व्यक्ति समाजवादी पार्टी कार्यकर्ता नहीं हैं। जबकि इस मामले में पीड़ित पक्ष का कहना है कि वोट न देने पर सपा की सरकार आने के बाद उन्हें निशाना बनाया गया है।

प्रदेश भर से आ रही हिंसा की खबरों के बाद गुरुवार को सैफई में होली समारोह के दौरान मुलायम सिंह यादव ने कार्यकर्ताओं से अनुशासित रहने की अपील की।

युवती से छेड़छाड़ के मामले में विधायक का बेटा गिरफ्तार

लखनऊ। रूसी युवती से छेड़छाड़ के मामले में बसपा विधायक के बेटे को पुलिस ने सोमवार को गिरफ्तार कर लिया। उसे मालवीय नगर के सर्वोदय एंक्लेव से गिरफ्तार किया गया। वह यहां अपनी बहन के घर में छिपा हुआ था।

उल्लेखनीय है कि एक रूसी युवती ने उत्तर प्रदेश के बसपा के एक विधायक के बेटे विवेक सिंह के खिलाफ दिल्ली के महरौली थाने में छेड़छाड़ व मारपीट का मामला दर्ज कराया था। शिकायत में आरोप लगाया गया था कि विवेक ने युवती का पासपोर्ट, क्रेडिट कार्ड व मोबाइल भी छीन लिया।

मामला दर्ज होने के बाद से विवेक फरार था। आखिरकार सोमवार को उसे गिरफ्तार कर लिया गया। ज्ञात रहे कि विवेक के खिलाफ वर्ष 2009 में कालकाजी थाने में भी मुकदमा दर्ज किया गया था। तब उस पर नेहरू प्लेस इलाके में एक बार मैनेजर पर गोली चलाने का आरोप लगाया गया था।
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