जिस तरह कुछ फूल एक खास मौसम में ही खिलते हैं, उसी तरह भारत की राजनीति भी चुनाव के मौसम में ही अपना असली रंग दिखाती है। राजनीतिक दलों की रणनीतियों को देखें तो बड़ी आसानी से पता लगाया जा सकता है कि भारत के मतदाताओं की प्राथमिकताएं क्या हैं या वे किसी को क्यों वोट देते हैं।
उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए राजनीतिक दलों द्वारा जो घोषणाएं की गई हैं, वे चाहे कितनी ही विचित्र, विवादास्पद या अनैतिक क्यों न हों, लेकिन वे हमें यह जरूर बताती हैं कि एक औसत भारतीय मतदाता को क्या लुभाता है। विवेकसंगत, सुशिक्षित और आधुनिक सोच रखने वाले राजनेता भी वोट जुगाड़ने के लिए घिसे-पिटे कदम उठाने से नहीं चूकते। लेकिन वे यह नहीं सोचते कि उनके द्वारा उठाए जाने वाले कदमों का समाज पर क्या दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।
उत्तर प्रदेश में भाजपा ने बाबूसिंह कुशवाहा से नाता जोड़ लिया, जबकि उस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। भाजपा के इस कदम की फौरन तीखी प्रतिक्रिया हुई।
लोग सोचने लगे कि भ्रष्टाचार के विरोध में रथयात्रा निकालने वाली भाजपा को आखिर ऐसी कौन-सी मजबूरी आन पड़ी, जो उसे यह कदम उठाना पड़ा। मीडिया ने इसके लिए भाजपा की चाहे कितनी ही मलामत क्यों न की हो, लेकिन भाजपा ने यह फैसला बिना सोचे-समझे नहीं लिया था। अन्य पिछड़ा वर्ग में आने वाले कुशवाहा समुदाय की उत्तर प्रदेश में लगभग दस फीसदी आबादी है। जाहिर है किसी जाति विशेष का समर्थन अर्जित करने का चुनावी परिणामों पर भारी असर पड़ता है। उत्तर प्रदेश के वोट बैंक के इतने लुभावने हिस्से को अपने पक्ष में कर लेने का लोभ संवरण कर पाना भाजपा के लिए मुश्किल ही था।
लेकिन कांग्रेस द्वारा ओबीसी कोटे में अल्पसंख्यक कोटे की घोषणा करने को भी इससे बेहतर कदम नहीं बताया जा सकता। जब आप यह पढ़ रहे होंगे, तब कांग्रेस के नेता पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी इस घोषणा पर इतराते फिर रहे होंगे। भाजपा और कांग्रेस के इन दोनों ही कदमों का समाज पर गहरा असर पड़ सकता है और वे भारतीय मूल्यों को भी दागदार कर सकते हैं।
पहला कदम कहता है कि यदि किसी व्यक्ति की जाति राजनीतिक समीकरणों के अनुरूप है तो भ्रष्टाचार जैसे पाप को भी माफ किया जा सकता है। यह कदम साफ-साफ बताता है कि हम ईमानदारी से ज्यादा जातिवाद को महत्व देते हैं। दूसरे कदम यानी अल्पसंख्यक आरक्षण के परिणाम तो और गंभीर हो सकते हैं।
यह हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच की खाई को और चौड़ा कर सकता है। यह धर्म के आधार पर विशेषाधिकारों और लाभों को स्वीकृति देता है। मुझे नहीं लगता यह कदम उठाते समय इसके दूरगामी परिणामों पर गंभीरता से विचार किया गया होगा।
जरा सोचें, जाति बदलना संभव नहीं है, लेकिन धर्मातरण किया जा सकता है। तो क्या हम एक ऐसे परिदृश्य का निर्माण करने जा रहे हैं कि यदि किसी हिंदू लड़के को जॉब या कॉलेज में एडमिशन नहीं मिल सकता, तो वह मुस्लिम बन जाए ताकि उसे कोटे के तहत जॉब या एडमिशन मिल जाए? ऐसी नीति को अमल में लाना तो दूर, उसकी घोषणा भी आखिर कैसे की जा सकती है?
इसका दुखद पहलू यह है कि इस आरक्षण से मुस्लिमों को भी ज्यादा लाभ नहीं मिलने वाला। मुस्लिमों को मुख्यधारा में आने के लिए अच्छी शिक्षा, उद्यमशीलता और सशक्तीकरण की जरूरत है। आज अनेक मुस्लिम अपनी प्रतिभा और लगन के बूते नेशनल आइकॉन बन पाए हैं।
मुस्लिमों को इस तरह की बेतुकी चुनावी सौगातों की नहीं, बल्कि ऐसे परिवेश की दरकार है, जो उनकी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर दे। क्या हम किसी ऐसे व्यक्ति को अच्छा पिता कहेंगे, जो अपने बच्चे को पढ़ाई के लिए किताबें खरीदकर देने के बजाय उसे टॉफियां देकर खुश कर देता है?
बहरहाल, मैं इसके लिए राजनेताओं को दोष नहीं देता। शायद ऐसी स्थिति में हम भी ऐसा ही करते। समस्या भारतीय मतदाताओं या कहें हमारे साथ है। हमारा महान भारतीय मस्तिष्क पूर्वग्रहों से भरा हुआ है। इस तरह के पूर्वग्रहों को सदियों के उत्पीड़न, भेदभाव और दूसरों से श्रेष्ठ होने की मानसिकता ने जन्म दिया है।
इन्हीं ने हमारा मौजूदा लोकतंत्र रचा है, जिसमें सर्वानुमति के बजाय कर्कशता ज्यादा है। संसद या विधानसभाओं में हम अक्सर जिस तरह का हंगामा देखते हैं, वह और कुछ नहीं, बल्कि भारतीय मानस में बसी अराजकताओं और भ्रमों की ही तस्वीर है। यहां तक कि हमारे सुशिक्षित लोग भी पूर्वग्रहों से अछूते नहीं हैं।
इसे बड़ी आसानी से जांचा जा सकता है। क्या आप अपने भाई-बहन या बच्चों को दूसरे समाज या धर्म के व्यक्ति के साथ विवाह करने की इजाजत देंगे? यदि आपका जवाब ना है, तो मुझे खेद के साथ कहना पड़ेगा कि आप भारतीय टीम के लिए चाहे कितनी ही तालियां बजाते हों, राष्ट्रगान बजते समय सावधान की मुद्रा में खड़े रहते हों या तिरंगे का पूरा सम्मान करते हों, लेकिन हकीकत यही है कि आप पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं। और जब तक हममें से ज्यादातर लोग पूर्वग्रह से ग्रस्त रहेंगे, तब तक हमें ऐसा ही भ्रमित और दोयम दर्जे का नेतृत्व मिलेगा।
सामाजिक कार्यकर्ता चाहे जितने ही अनशन कर लें और अर्थशास्त्री चाहे जितनी बेहतर नीतियां सुझा दें, जब तक हम खुद को सबसे पहले एक भारतीय नहीं मानेंगे, तब तक यही होता रहेगा। हां, दलितों के साथ अतीत में बुरा बर्ताव हुआ है और कुछ के साथ अब भी होता है। हां, मुस्लिमों के साथ भेदभाव हुआ है और कुछ के साथ अब भी होता है, लेकिन हालात सुधरे हैं और यदि हम पूर्वग्रहों से पीछा छुड़ा लें तो और तेजी से सुधर सकते हैं।
यदि हम अब भी नहीं बदले तो समझ लीजिए कि हम बर्बादी की ओर बढ़ रहे हैं। समाज में अनिर्णय और अक्षमता की स्थिति होगी और देश का विकास थम जाएगा। युवा पीढ़ी के लिए अच्छी शिक्षा और रोजगार हासिल करना और मुश्किल हो जाएगा।
यदि हम अपने नेताओं का निर्वाचन उनके द्वारा हमें दी गई टॉफियों के आधार पर करते हैं, तो अपनी नियति के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। हालांकि चुनाव आ रहे हैं और वे हमें एक और मौका देंगे कि या तो हम पहले की तरह अपने पूर्वग्रहों को व्यक्त करते रहें, या उनसे हमेशा के लिए मुक्त हो जाएं। आप क्या करने जा रहे हैं? -लेखक : चेतन भगत, अंग्रेजी के प्रसिद्ध युवा उपन्यासकार हैं। (लेख : From : दैनिक भास्कर)
उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए राजनीतिक दलों द्वारा जो घोषणाएं की गई हैं, वे चाहे कितनी ही विचित्र, विवादास्पद या अनैतिक क्यों न हों, लेकिन वे हमें यह जरूर बताती हैं कि एक औसत भारतीय मतदाता को क्या लुभाता है। विवेकसंगत, सुशिक्षित और आधुनिक सोच रखने वाले राजनेता भी वोट जुगाड़ने के लिए घिसे-पिटे कदम उठाने से नहीं चूकते। लेकिन वे यह नहीं सोचते कि उनके द्वारा उठाए जाने वाले कदमों का समाज पर क्या दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।
उत्तर प्रदेश में भाजपा ने बाबूसिंह कुशवाहा से नाता जोड़ लिया, जबकि उस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। भाजपा के इस कदम की फौरन तीखी प्रतिक्रिया हुई।
लोग सोचने लगे कि भ्रष्टाचार के विरोध में रथयात्रा निकालने वाली भाजपा को आखिर ऐसी कौन-सी मजबूरी आन पड़ी, जो उसे यह कदम उठाना पड़ा। मीडिया ने इसके लिए भाजपा की चाहे कितनी ही मलामत क्यों न की हो, लेकिन भाजपा ने यह फैसला बिना सोचे-समझे नहीं लिया था। अन्य पिछड़ा वर्ग में आने वाले कुशवाहा समुदाय की उत्तर प्रदेश में लगभग दस फीसदी आबादी है। जाहिर है किसी जाति विशेष का समर्थन अर्जित करने का चुनावी परिणामों पर भारी असर पड़ता है। उत्तर प्रदेश के वोट बैंक के इतने लुभावने हिस्से को अपने पक्ष में कर लेने का लोभ संवरण कर पाना भाजपा के लिए मुश्किल ही था।
लेकिन कांग्रेस द्वारा ओबीसी कोटे में अल्पसंख्यक कोटे की घोषणा करने को भी इससे बेहतर कदम नहीं बताया जा सकता। जब आप यह पढ़ रहे होंगे, तब कांग्रेस के नेता पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी इस घोषणा पर इतराते फिर रहे होंगे। भाजपा और कांग्रेस के इन दोनों ही कदमों का समाज पर गहरा असर पड़ सकता है और वे भारतीय मूल्यों को भी दागदार कर सकते हैं।
पहला कदम कहता है कि यदि किसी व्यक्ति की जाति राजनीतिक समीकरणों के अनुरूप है तो भ्रष्टाचार जैसे पाप को भी माफ किया जा सकता है। यह कदम साफ-साफ बताता है कि हम ईमानदारी से ज्यादा जातिवाद को महत्व देते हैं। दूसरे कदम यानी अल्पसंख्यक आरक्षण के परिणाम तो और गंभीर हो सकते हैं।
यह हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच की खाई को और चौड़ा कर सकता है। यह धर्म के आधार पर विशेषाधिकारों और लाभों को स्वीकृति देता है। मुझे नहीं लगता यह कदम उठाते समय इसके दूरगामी परिणामों पर गंभीरता से विचार किया गया होगा।
जरा सोचें, जाति बदलना संभव नहीं है, लेकिन धर्मातरण किया जा सकता है। तो क्या हम एक ऐसे परिदृश्य का निर्माण करने जा रहे हैं कि यदि किसी हिंदू लड़के को जॉब या कॉलेज में एडमिशन नहीं मिल सकता, तो वह मुस्लिम बन जाए ताकि उसे कोटे के तहत जॉब या एडमिशन मिल जाए? ऐसी नीति को अमल में लाना तो दूर, उसकी घोषणा भी आखिर कैसे की जा सकती है?
इसका दुखद पहलू यह है कि इस आरक्षण से मुस्लिमों को भी ज्यादा लाभ नहीं मिलने वाला। मुस्लिमों को मुख्यधारा में आने के लिए अच्छी शिक्षा, उद्यमशीलता और सशक्तीकरण की जरूरत है। आज अनेक मुस्लिम अपनी प्रतिभा और लगन के बूते नेशनल आइकॉन बन पाए हैं।
मुस्लिमों को इस तरह की बेतुकी चुनावी सौगातों की नहीं, बल्कि ऐसे परिवेश की दरकार है, जो उनकी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर दे। क्या हम किसी ऐसे व्यक्ति को अच्छा पिता कहेंगे, जो अपने बच्चे को पढ़ाई के लिए किताबें खरीदकर देने के बजाय उसे टॉफियां देकर खुश कर देता है?
बहरहाल, मैं इसके लिए राजनेताओं को दोष नहीं देता। शायद ऐसी स्थिति में हम भी ऐसा ही करते। समस्या भारतीय मतदाताओं या कहें हमारे साथ है। हमारा महान भारतीय मस्तिष्क पूर्वग्रहों से भरा हुआ है। इस तरह के पूर्वग्रहों को सदियों के उत्पीड़न, भेदभाव और दूसरों से श्रेष्ठ होने की मानसिकता ने जन्म दिया है।
इन्हीं ने हमारा मौजूदा लोकतंत्र रचा है, जिसमें सर्वानुमति के बजाय कर्कशता ज्यादा है। संसद या विधानसभाओं में हम अक्सर जिस तरह का हंगामा देखते हैं, वह और कुछ नहीं, बल्कि भारतीय मानस में बसी अराजकताओं और भ्रमों की ही तस्वीर है। यहां तक कि हमारे सुशिक्षित लोग भी पूर्वग्रहों से अछूते नहीं हैं।
इसे बड़ी आसानी से जांचा जा सकता है। क्या आप अपने भाई-बहन या बच्चों को दूसरे समाज या धर्म के व्यक्ति के साथ विवाह करने की इजाजत देंगे? यदि आपका जवाब ना है, तो मुझे खेद के साथ कहना पड़ेगा कि आप भारतीय टीम के लिए चाहे कितनी ही तालियां बजाते हों, राष्ट्रगान बजते समय सावधान की मुद्रा में खड़े रहते हों या तिरंगे का पूरा सम्मान करते हों, लेकिन हकीकत यही है कि आप पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं। और जब तक हममें से ज्यादातर लोग पूर्वग्रह से ग्रस्त रहेंगे, तब तक हमें ऐसा ही भ्रमित और दोयम दर्जे का नेतृत्व मिलेगा।
सामाजिक कार्यकर्ता चाहे जितने ही अनशन कर लें और अर्थशास्त्री चाहे जितनी बेहतर नीतियां सुझा दें, जब तक हम खुद को सबसे पहले एक भारतीय नहीं मानेंगे, तब तक यही होता रहेगा। हां, दलितों के साथ अतीत में बुरा बर्ताव हुआ है और कुछ के साथ अब भी होता है। हां, मुस्लिमों के साथ भेदभाव हुआ है और कुछ के साथ अब भी होता है, लेकिन हालात सुधरे हैं और यदि हम पूर्वग्रहों से पीछा छुड़ा लें तो और तेजी से सुधर सकते हैं।
यदि हम अब भी नहीं बदले तो समझ लीजिए कि हम बर्बादी की ओर बढ़ रहे हैं। समाज में अनिर्णय और अक्षमता की स्थिति होगी और देश का विकास थम जाएगा। युवा पीढ़ी के लिए अच्छी शिक्षा और रोजगार हासिल करना और मुश्किल हो जाएगा।
यदि हम अपने नेताओं का निर्वाचन उनके द्वारा हमें दी गई टॉफियों के आधार पर करते हैं, तो अपनी नियति के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। हालांकि चुनाव आ रहे हैं और वे हमें एक और मौका देंगे कि या तो हम पहले की तरह अपने पूर्वग्रहों को व्यक्त करते रहें, या उनसे हमेशा के लिए मुक्त हो जाएं। आप क्या करने जा रहे हैं? -लेखक : चेतन भगत, अंग्रेजी के प्रसिद्ध युवा उपन्यासकार हैं। (लेख : From : दैनिक भास्कर)
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