यह अच्छी बात है कि लोकपाल बिल एक हकीकत बनने के करीब है और आशा करें कि राज्यसभा भी उसे मंजूरी दे देगी। बहरहाल, यूपीए के राजनेता सार्वजनिक रूप से चाहे जितना ही ‘अन्नाजी ये’ और ‘अन्नाजी वो’ करते रहें, लेकिन वास्तविकता यह है कि टीम अन्ना उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती। चाहे अन्ना के विरोध में कोई भी बात कही जाने पर यूपीए सदस्यों के चेहरे पर आने वाली कुटिल हंसी हो या अन्ना से संबंधित चलताऊ जोक्स सुनाए जाने पर संसद में उनके द्वारा उत्साह से टेबल बजाना हो, आप देख सकते हैं कि यूपीए के नेता अन्ना को नीचे गिराने के लिए कितने बेचैन हैं।
यूपीए के कुछ बहादुर नेताओं ने अन्ना को नीचे गिराने की जी-तोड़ कोशिशें भी की थीं। वे नाकाम रहे और अपनी बची-खुची प्रतिष्ठा में पलीता लगाकर देश में सबसे ज्यादा हंसी के पात्र बनने वाले नेता बन गए। यूपीए के बाकी सदस्य शायद सोच रहे होंगे कि आखिर कैसे यह बूढ़ा अनिर्वाचित व्यक्ति जनता के लिए किसी आम सांसद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है।
शायद यह भी संभव है कि मुंबई में अपना अनशन समाप्त करने के बावजूद अन्ना अपने आंदोलन के दूरगामी लक्ष्यों को अर्जित करने में कामयाब हो जाएं और नेताओं के अधिकारों और शक्तियों पर हमेशा के लिए अंकुश लग जाए। उनकी परेशानी का एक सबब यह भी है कि अन्ना और उनकी टीम ने अभी तक आमतौर पर हठधर्मिता ही दिखाई है और यूपीए की हर चालाक तरकीब से बचने का रास्ता खोज निकाला है। उन्हें मौजूदा बिल अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं लगा था (हालांकि वह अगस्त में प्रस्तावित बिल की तरह निराशाजनक नहीं है) तो उन्होंने एक और जंग का बिगुल बजाने में देरी नहीं की थी।
लेकिन मीडिया अन्ना को पसंद करता है और यूपीए की एक स्याह तस्वीर पेश करता है। आज यह स्थिति है कि यूपीए के हर राजनेता को भ्रष्ट या किसी भ्रष्ट नेता का अनुचर मान लिया गया है, जो कि पूरी तरह ठीक नहीं है। यूपीए सत्ता में है, लेकिन इसके बावजूद आज उसके पाले में होना बहुत आरामदायक अनुभव नहीं हो सकता।
लिहाजा यूपीए के किसी भी व्यक्ति के लिए अन्ना को नापसंद करने के कई जाहिर कारण हैं। शायद वे लगातार यही सोचते रहते हैं कि अन्ना से कैसे पीछा छुड़ाया जाए और बेसब्री से उस दिन का इंतजार करते हैं, जब अन्ना देश के लिए अप्रासंगिक हो जाएंगे। लेकिन इसके बावजूद अन्ना वास्तव में एक ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं, जिनके प्रति यूपीए को मैत्रीपूर्ण होना चाहिए। क्योंकि अगर सरकार के उग्र विरोधियों से तुलना करें तो टीम अन्ना के सदस्य नेक ही साबित होते हैं। वे अब भी अहिंसा जैसे गांधीवादी आदर्शो में विश्वास करते हैं और बैठक-विचार करने को तत्पर रहते हैं। वे मीडिया के सवालों का जवाब देते हैं।
वे अपनी धारणाओं में दृढ़ता से भरोसा रखते हैं और अपनी बातें समझाने का पूरा प्रयास करते हैं। काफी हद तक टीम अन्ना का कोई निजी एजेंडा नहीं है और उसके सदस्य विशुद्ध एक्टिविस्ट होने के साथ ही स्मार्ट, भद्र, सुशिक्षित, विनम्र और सहज-सुलभ हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वे दूध के धुले हैं या उनमें कोई भी खामी नहीं है।
टीम अन्ना की अपनी सीमाएं हैं और उनकी कार्यपद्धति भी कुछ ऐसी है कि उसके कारगर साबित होने की गुंजाइश कम हो जाती है। मिसाल के तौर पर संसद में लोकपाल बिल पर बहस जारी रहने के दौरान ही उन्होंने अनशन करने का निर्णय ले लिया। इस पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद यूपीए को अन्ना के आंदोलन को एक अलग दृष्टिकोण से देखना चाहिए।
कुछ संभावनाओं के बारे में संभवत: यूपीए ने गंभीरता से विचार नहीं किया है। कल्पना करें कि यूपीए अन्ना के आंदोलन को पूरी तरह से समाप्त करने में सफल हो जाता है। तब क्या होगा? मुमकिन है कि यूपीए अपनी इस कामयाबी का जश्न मनाए, लेकिन जनता के मन में पैठा गुस्सा और असहायता की भावना इससे खत्म नहीं हो जाएगी। यह सच है कि पूरे देश की जनता अन्ना के साथ नहीं है, लेकिन इसके बावजूद अन्ना के लाखों समर्थक हैं।
वे देश के किसी भी कोने में जाकर महत्वपूर्ण हस्तक्षेप कर सकते हैं। यह भी मुमकिन है कि अन्ना के बाद ऐसे नेता भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए उठ खड़े हों, जो उनकी तरह शालीन नहीं हों और गांधीवादी आदर्शो में विश्वास नहीं करते हों। उनके द्वारा भ्रष्ट नेताओं के विरुद्ध अलोकतांत्रिक तौर-तरीके अख्तियार करने की आशंकाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में क्या होगा? गंभीर बुद्धिजीवी टीवी पर उनकी निंदा करेंगे, लेकिन बहुत संभव है कि इस तरह के नेताओं को जनता का समर्थन मिले। लेकिन क्या वह देश के लिए अराजकता की स्थिति नहीं होगी?
जहां ये सारी बातें फिलहाल दूर की कौड़ी लग सकती हैं, वहीं यह भी याद रखा जाना चाहिए कि कुछ साल पहले तक अन्ना के आंदोलन जैसी किसी घटना को भी दूर की कौड़ी ही माना जाता। एक भ्रष्टाचार विरोधी अलोकतांत्रिक आंदोलन के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता और राजनेताओं को इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यह न उनके लिए अच्छा होगा, न देश के लिए। कल्पना करें, यदि किसी अतिवादी संगठन ने अपनी सार्वजनिक छवि सुधारने के लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया, तो क्या उसे भी जनता के एक वर्ग में लोकप्रियता नहीं मिलेगी? क्या उसे एक हद तक जनसमर्थन नहीं मिलेगा?
निश्चित ही यह देश के लिए खतरा होगा, लेकिन इससे तात्कालिक नुकसान तो हमारे राजनेताओं को ही होगा। देशवासी भ्रष्टाचार ही नहीं, बल्कि महंगाई, खराब बुनियादी ढांचा, शिक्षा की चिंतनीय स्थिति और नौकरियों का अभाव जैसी समस्याओं से भी जूझ रहे हैं। आने वाले दिनों में जनता के असंतोष में इजाफा ही होना है। ऐसे में कोई भी धूर्त नेता जनता के असंतोष का फायदा उठा सकता है।
लिहाजा अन्ना का मखौल उड़ाने या उन पर छींटाकशी करने से कुछ नहीं होगा। देश के राजनेताओं को तो अन्ना का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी जनभावनाओं का नेतृत्व अहिंसक, मर्यादित और शांतिपूर्ण ढंग से किया। अगर अन्ना का आंदोलन नाकाम हो गया तो जनता से ज्यादा नुकसान हमारे राजनेताओं का होगा। -लेखक : चेतन भगत, अंग्रेजी के प्रसिद्ध युवा उपन्यासकार हैं। (लेख : From : दैनिक भास्कर)
यूपीए के कुछ बहादुर नेताओं ने अन्ना को नीचे गिराने की जी-तोड़ कोशिशें भी की थीं। वे नाकाम रहे और अपनी बची-खुची प्रतिष्ठा में पलीता लगाकर देश में सबसे ज्यादा हंसी के पात्र बनने वाले नेता बन गए। यूपीए के बाकी सदस्य शायद सोच रहे होंगे कि आखिर कैसे यह बूढ़ा अनिर्वाचित व्यक्ति जनता के लिए किसी आम सांसद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है।
शायद यह भी संभव है कि मुंबई में अपना अनशन समाप्त करने के बावजूद अन्ना अपने आंदोलन के दूरगामी लक्ष्यों को अर्जित करने में कामयाब हो जाएं और नेताओं के अधिकारों और शक्तियों पर हमेशा के लिए अंकुश लग जाए। उनकी परेशानी का एक सबब यह भी है कि अन्ना और उनकी टीम ने अभी तक आमतौर पर हठधर्मिता ही दिखाई है और यूपीए की हर चालाक तरकीब से बचने का रास्ता खोज निकाला है। उन्हें मौजूदा बिल अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं लगा था (हालांकि वह अगस्त में प्रस्तावित बिल की तरह निराशाजनक नहीं है) तो उन्होंने एक और जंग का बिगुल बजाने में देरी नहीं की थी।
लेकिन मीडिया अन्ना को पसंद करता है और यूपीए की एक स्याह तस्वीर पेश करता है। आज यह स्थिति है कि यूपीए के हर राजनेता को भ्रष्ट या किसी भ्रष्ट नेता का अनुचर मान लिया गया है, जो कि पूरी तरह ठीक नहीं है। यूपीए सत्ता में है, लेकिन इसके बावजूद आज उसके पाले में होना बहुत आरामदायक अनुभव नहीं हो सकता।
लिहाजा यूपीए के किसी भी व्यक्ति के लिए अन्ना को नापसंद करने के कई जाहिर कारण हैं। शायद वे लगातार यही सोचते रहते हैं कि अन्ना से कैसे पीछा छुड़ाया जाए और बेसब्री से उस दिन का इंतजार करते हैं, जब अन्ना देश के लिए अप्रासंगिक हो जाएंगे। लेकिन इसके बावजूद अन्ना वास्तव में एक ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं, जिनके प्रति यूपीए को मैत्रीपूर्ण होना चाहिए। क्योंकि अगर सरकार के उग्र विरोधियों से तुलना करें तो टीम अन्ना के सदस्य नेक ही साबित होते हैं। वे अब भी अहिंसा जैसे गांधीवादी आदर्शो में विश्वास करते हैं और बैठक-विचार करने को तत्पर रहते हैं। वे मीडिया के सवालों का जवाब देते हैं।
वे अपनी धारणाओं में दृढ़ता से भरोसा रखते हैं और अपनी बातें समझाने का पूरा प्रयास करते हैं। काफी हद तक टीम अन्ना का कोई निजी एजेंडा नहीं है और उसके सदस्य विशुद्ध एक्टिविस्ट होने के साथ ही स्मार्ट, भद्र, सुशिक्षित, विनम्र और सहज-सुलभ हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वे दूध के धुले हैं या उनमें कोई भी खामी नहीं है।
टीम अन्ना की अपनी सीमाएं हैं और उनकी कार्यपद्धति भी कुछ ऐसी है कि उसके कारगर साबित होने की गुंजाइश कम हो जाती है। मिसाल के तौर पर संसद में लोकपाल बिल पर बहस जारी रहने के दौरान ही उन्होंने अनशन करने का निर्णय ले लिया। इस पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद यूपीए को अन्ना के आंदोलन को एक अलग दृष्टिकोण से देखना चाहिए।
कुछ संभावनाओं के बारे में संभवत: यूपीए ने गंभीरता से विचार नहीं किया है। कल्पना करें कि यूपीए अन्ना के आंदोलन को पूरी तरह से समाप्त करने में सफल हो जाता है। तब क्या होगा? मुमकिन है कि यूपीए अपनी इस कामयाबी का जश्न मनाए, लेकिन जनता के मन में पैठा गुस्सा और असहायता की भावना इससे खत्म नहीं हो जाएगी। यह सच है कि पूरे देश की जनता अन्ना के साथ नहीं है, लेकिन इसके बावजूद अन्ना के लाखों समर्थक हैं।
वे देश के किसी भी कोने में जाकर महत्वपूर्ण हस्तक्षेप कर सकते हैं। यह भी मुमकिन है कि अन्ना के बाद ऐसे नेता भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए उठ खड़े हों, जो उनकी तरह शालीन नहीं हों और गांधीवादी आदर्शो में विश्वास नहीं करते हों। उनके द्वारा भ्रष्ट नेताओं के विरुद्ध अलोकतांत्रिक तौर-तरीके अख्तियार करने की आशंकाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में क्या होगा? गंभीर बुद्धिजीवी टीवी पर उनकी निंदा करेंगे, लेकिन बहुत संभव है कि इस तरह के नेताओं को जनता का समर्थन मिले। लेकिन क्या वह देश के लिए अराजकता की स्थिति नहीं होगी?
जहां ये सारी बातें फिलहाल दूर की कौड़ी लग सकती हैं, वहीं यह भी याद रखा जाना चाहिए कि कुछ साल पहले तक अन्ना के आंदोलन जैसी किसी घटना को भी दूर की कौड़ी ही माना जाता। एक भ्रष्टाचार विरोधी अलोकतांत्रिक आंदोलन के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता और राजनेताओं को इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यह न उनके लिए अच्छा होगा, न देश के लिए। कल्पना करें, यदि किसी अतिवादी संगठन ने अपनी सार्वजनिक छवि सुधारने के लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया, तो क्या उसे भी जनता के एक वर्ग में लोकप्रियता नहीं मिलेगी? क्या उसे एक हद तक जनसमर्थन नहीं मिलेगा?
निश्चित ही यह देश के लिए खतरा होगा, लेकिन इससे तात्कालिक नुकसान तो हमारे राजनेताओं को ही होगा। देशवासी भ्रष्टाचार ही नहीं, बल्कि महंगाई, खराब बुनियादी ढांचा, शिक्षा की चिंतनीय स्थिति और नौकरियों का अभाव जैसी समस्याओं से भी जूझ रहे हैं। आने वाले दिनों में जनता के असंतोष में इजाफा ही होना है। ऐसे में कोई भी धूर्त नेता जनता के असंतोष का फायदा उठा सकता है।
लिहाजा अन्ना का मखौल उड़ाने या उन पर छींटाकशी करने से कुछ नहीं होगा। देश के राजनेताओं को तो अन्ना का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी जनभावनाओं का नेतृत्व अहिंसक, मर्यादित और शांतिपूर्ण ढंग से किया। अगर अन्ना का आंदोलन नाकाम हो गया तो जनता से ज्यादा नुकसान हमारे राजनेताओं का होगा। -लेखक : चेतन भगत, अंग्रेजी के प्रसिद्ध युवा उपन्यासकार हैं। (लेख : From : दैनिक भास्कर)
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