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Monday 12 March 2012

इस कीचड़ की दुर्गध नहीं आती? ...भ्रष्ट भी श्रेष्ठ!

देश में जब लोकतंत्र लागू हुआ था, तब चुनावों की उम्मीदवारी आदर्शो पर आधारित होती थी। दोनों ही प्रमुख दल आदर्श चेहरों की तलाश में रहते थे। समय के साथ तलाश लगभग समाप्त ही हो गई। यूपी के चुनावों ने साबित कर दिया कि दोनों ही दल आचरण से इतने गिर गए कि उनके आगे अपराधी भी पहली पसन्द बन गए। यह है हमारे लोकतंत्र की साठ साल की कमाई। राजस्थान की कांग्रेस सरकार कहती है कि वह अधिकारियों के साथ है। चाहे वे कुछ भी कर लें। लगभग डेढ़ दर्जन अधिकारियों के विरूद्ध चल रहे मुकदमे वापस लेकर अपनी बात को प्रमाणित भी कर दिया। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारें अपराधियों (नेता एवं अफसर) को गले लगाकर गर्व महसूस करती रहती हैं। अभी दो दिन पूर्व ही लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज एवं म.प्र. के भाजपा अध्यक्ष प्रभात झा अपने ही एक विधायक के कुकृत्यों को ढकने के लिए बोल रहे थे। मानो कोई बड़ा पुण्य का कार्य किया हो, उन्होंने। पहले भी एक होटल के छापे में इनके नाम को दबा देने के लिए बहुत प्रयास हुए थे। क्या जनता को इस कीचड़ की दुर्गध नहीं आती? क्यों उसने इन दोनों दलों को सिरे से नकारना शुरू कर दिया। 


इन दोनों दलों में व्याप्त भ्रष्टाचार और यौनाचार ही देश की इस नारकीय स्थिति का जिम्मेदार पहलू है। भीतर आज दोनों ही दल एक हो चुके हैं। सोनिया गांधी और सुषमा स्वराज में कोई भेद नहीं रह गया है। बड़े नेताओं के बेटी-दामादों ने तो क्या नहीं कर दिखाया। वंशवाद भी छोटा पड़ गया इनके आगे। सही अर्थो में ये नेताओं के ही प्रतिनिधि हैं। यही क्षेत्रीय दलों के विकास तथा जनप्रतिनिधियों की खरीद-बेच का कारण भी है। दोनों ही आज धनाढ्य हैं। काले धन में डुबकियां लगा रहे हैं। धन बल और भुज बल के सहारे अपने मतदाता पर अत्याचार करके फूले नहीं समाते। यूपी में सरकार किसकी बनी, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि जिस मायावती को और जिस मुलायम सिंह को भ्रष्ट और गुण्डा माना जा रहा है अथवा कहा जा रहा है, उन दोनों को ही जनता ने कांग्रेस तथा भाजपा से तो श्रेष्ठ ही माना है। तब ये दोनों दल जनता की दृष्टि में कितने गिरे हुए होंगे? दोनों ही दलों के शीर्ष पुरूषों का धन माफिया के कार्यो में (हथियार-मादक पदार्थ-शराब-जमीन आदि) में लगा हुआ है। विदेशों में भी मूलत: सारा धन इन्हीं लोगों का तथा इनसे जुड़े रसूखदारों एवं उद्यमियों का ही है। जो भी बड़े-बड़े घोटाले अभी तक सामने आए हैं, वे भी इन्हीं दलों से सम्बन्धित हैं। नैना साहनी से लेकर भंवरी-पारसी-शहला मसूद जैसे जघन्य हत्याकाण्ड इन दलों के घिनौनेपन का इतिहास बयां करते हैं। आसुरी शक्तियों का यह कलयुगी रूप है। सत्ता और भोग का तो चोली-दामन का साथ रहा है। किन्तु अपनी ही भोग्या की हत्या के लिए सुपारी देना, हत्याकाण्ड में महिलाओं का जुड़ा होना तो कन्या भ्रूण हत्या से भी अधिक दुर्दान्त और दु:साहस का कार्य है। इन अपराधियों को सरकारी संरक्षण प्राप्त होना सरकार की चुनावी पात्रता को समाप्त कर देता है। किस मुंह से ये दोनों दल मतदाता के सामने चले जाते हैं? क्या वे अपने इसी आचरण को विस्तार देने के लिए समर्थन चाहते हैं? अच्छा होगा यदि सन् 2014 या (13) के आम चुनावों से पहले दोनों ही दल अपनी भूमिका एवं लक्ष्यों पर पुनर्विचार और मंथन करें। नए सिरे से जनता का विश्वास जीतने का ईमानदार प्रयास करें। वरना, इन राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों के गठन एवं विकास का मार्ग प्रशस्त होने के आसार तो बनने लग ही गए हैं। एक के हारने से दूसरा स्वत: ही जीत जाएगा, वे दिन अब लद गए।

इन दोनों दलों में व्याप्त भ्रष्टाचार और यौनाचार ही देश की इस नारकीय स्थिति का जिम्मेदार पहलू है। भीतर आज दोनों ही दल एक हो चुके हैं। सोनिया गांधी और सुषमा स्वराज में कोई भेद नहीं रह गया है। बड़े नेताओं के बेटी-दामादों ने तो क्या नहीं कर दिखाया। वंशवाद भी छोटा पड़ गया इनके आगे। सही अर्थो में ये नेताओं के ही प्रतिनिधि हैं। यही क्षेत्रीय दलों के विकास तथा जनप्रतिनिधियों की खरीद-बेच का कारण भी है। दोनों ही आज धनाढ्य हैं। काले धन में डुबकियां लगा रहे हैं। धन बल और भुज बल के सहारे अपने मतदाता पर अत्याचार करके फूले नहीं समाते। यूपी में सरकार किसकी बनी, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि जिस मायावती को और जिस मुलायम सिंह को भ्रष्ट और गुण्डा माना जा रहा है अथवा कहा जा रहा है, उन दोनों को ही जनता ने कांग्रेस तथा भाजपा से तो श्रेष्ठ ही माना है। तब ये दोनों दल जनता की दृष्टि में कितने गिरे हुए होंगे? दोनों ही दलों के शीर्ष पुरूषों का धन माफिया के कार्यो में (हथियार-मादक पदार्थ-शराब-जमीन आदि) में लगा हुआ है। विदेशों में भी मूलत: सारा धन इन्हीं लोगों का तथा इनसे जुड़े रसूखदारों एवं उद्यमियों का ही है। जो भी बड़े-बड़े घोटाले अभी तक सामने आए हैं, वे भी इन्हीं दलों से सम्बन्धित हैं। नैना साहनी से लेकर भंवरी-पारसी-शहला मसूद जैसे जघन्य हत्याकाण्ड इन दलों के घिनौनेपन का इतिहास बयां करते हैं। आसुरी शक्तियों का यह कलयुगी रूप है। सत्ता और भोग का तो चोली-दामन का साथ रहा है। किन्तु अपनी ही भोग्या की हत्या के लिए सुपारी देना, हत्याकाण्ड में महिलाओं का जुड़ा होना तो कन्या भ्रूण हत्या से भी अधिक दुर्दान्त और दु:साहस का कार्य है। इन अपराधियों को सरकारी संरक्षण प्राप्त होना सरकार की चुनावी पात्रता को समाप्त कर देता है। किस मुंह से ये दोनों दल मतदाता के सामने चले जाते हैं? क्या वे अपने इसी आचरण को विस्तार देने के लिए समर्थन चाहते हैं? अच्छा होगा यदि सन् 2014 या (13) के आम चुनावों से पहले दोनों ही दल अपनी भूमिका एवं लक्ष्यों पर पुनर्विचार और मंथन करें। नए सिरे से जनता का विश्वास जीतने का ईमानदार प्रयास करें। वरना, इन राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों के गठन एवं विकास का मार्ग प्रशस्त होने के आसार तो बनने लग ही गए हैं। एक के हारने से दूसरा स्वत: ही जीत जाएगा, वे दिन अब लद गए।
  Writer - गुलाब कोठारी
(लेख : From :  Rajasthan Patrika)

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